विरल भारतीय संत हैं भगवान बुद्ध

बौद्धधर्म का देश-विदेश में बजता है डंका
इनसाईट आॅनलाईन न्यूज
भारतीय संत परम्परा में भगवान बुद्ध ने ऐसे संत के रूप में स्वयं को रूपांतरित किया जो मानवमात्र के लिए उदाहरण बन गए। उन्होंने राजपुत्र के रूप में जन्म लिया। जवान होने तक राज सुख भोगा।
अपने परिवार के साथ गार्हस्थ्य जीवन का भोग किया। राहुल जैसे सुपुत्र के पिता बन कर वैवाहिक जीवन को सार्थक किया। फिर सब सुख का क्षण भर में त्याग कर विरक्त जीवन के साथ महाभिनिष्क्रमण किया और एक दिन ऐसा आया जब उनके आत्म तत्व ने परमात्व तत्व के साथ मिलकर मानव जन्म की सार्थकता को साबित कर दिया। वह भगवान बुद्ध बन गए।
भगवान बुद्ध ऐसे भारतीय संत हैं जिनके नाम पर प्रचलित बहुप्रचारित बौद्ध धर्म पर आज भी देश-विदेश के करोड़ों लोगों की आस्था बनी हुई है। चीन, जापान जैसे देश में बौद्ध धर्म का डंका बजता है। ज्ञान और मोक्ष की भूमि गया में ही बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।
एक संत के शब्दों में कहें तो ‘भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण को आज अढ़ाई हजार वर्ष के कुछ अधिक काल हुए और ‘श्रीमदभगवद्गीता’ की रचना उससे भी अढ़ाई हजार वर्ष पहले हुई थी, फिर भी गीता और बुद्धवाणी में हम अद्भुत साम्य पाते हैं।’
श्रीमद्भगवद्गीता (अ06/5-6) में कहा गया है कि ‘मनुष्य अपना उद्धार आप करे। अपने आप को गिरने न दे। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही अपना बन्धु या स्वयं अपना शत्रु है। जिसने अपने आपको जीत लिया, वह स्वयं अपना बन्धु है, परन्तु जो अपने आपको नहीं पहचानता, वह स्वयं अपने साथ शत्रु के समान वैर करता है।’
‘धम्मपद’ के ‘दण्डवग्गो’ में निहित है कि ‘सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से, जो दण्ड से मारता है, वह मरकर सुख नहीं पाता।’’ किन्तु यह प्रमाणिक है कि ‘धम्मपद’ की रचना के बहुत पूर्व से ही मनुस्मृति और महाभारत में यह बात प्रतिष्ठित है। ‘जो नित्य वृद्धों को प्रणाम तथा उनकी सेवा करने का स्वभाव वाला है, उसकी चार चीजें बढ़ती हैं-आयु, विद्या, यश और बल।’’ यह वचन मनुस्मृति (2/121) में लिखा है। लेकिन ‘धम्मपद’ के सहस्सवग्गों में भी यही बात कही गई है-‘‘जो अभिवादनशील है, जो सदा वुद्धों की सेवा करनेवाला है, उसके चार धर्म बढ़ते हैं-आयु, वर्ण, सुख और बल।
एक विद्धान संत ने अपने तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट किया है कि वैदिक धर्मग्रंथों में जैसे हम देवता, ब्रह्मा, इन्द्र, वरूण, यक्ष, गन्धर्व, कामदेव, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, बन्ध-मोक्ष, आवागमन आदि की चर्चा पाते हैं, उसी तरह बौद्ध धर्म ग्रंथ में भी चर्चा है। वैदिक धर्म-ग्रंथों अथवा संतों के मत में जिन पंच पापों-मिथ्या भाषण, चैय्र्य, मादक द्रव्य-सेवन, हिंसा तथा व्यभिचार से विरत रह ध्यानाभ्यास करने का प्रबल आदेश है, भगवान बुद्ध ने भी उन्हीं पंच अकरणीय कर्मों से विलग रहने अर्थात् पंचशील पर प्रतिष्ठित होकर ध्यानाभ्यास करने की आज्ञा दी है।
और ‘धम्मपद’ के भिक्खुवग्गो-वचन 13 में लिखा है-‘‘प्रज्ञाविहीन को ध्यान नहीं होता और ध्यान (एकाग्रता) न करनेवाले को प्रज्ञा नहीं हो सकती। जिसमें ज्ञान और ध्यान दोनों है, वही निर्वाण के समीप है।’’
बौद्ध ग्रंथ में या बौद्ध धर्म में प्रचलित एक शब्द ‘निर्वाण’ पर विचार किया जा सकता है। ‘निर्वाण’ शब्द की चर्चा हम मात्र बौद्ध ग्रंथों में नहीं अपितु जैनागम और श्रीमद्भवगद्गीता में भी पाते
ज्ञानवान यहां प्रश्न खड़ा करते हैं कि जिस ‘निर्वाण’ शब्द की हम इतनी व्याख्या के साथ विशद् गाथा कह रहे हैं, यथार्थ में वह क्या है? निर्वाण किसे कहते हैं तथा इसकी उपलब्धि के उपाय क्या हैं? ‘निर्वाण’ में दो शब्द हैं-निः$वाण। पालि भाषा में वाण का अर्थ तृष्णा होता है। इस भांति इसका अर्थ होता है-वीत तृष्ण अर्थात् तृष्णा रहित। ‘निर्वाण’ का दूसरे शब्दों में दीपक के बूझ जाने अर्थात् वासना रूपी प्रदीप के अंत हो जाने के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है।
तीसरा अर्थ वाण रहित भी किया जा सकता है। इसी संदर्भ में भगवान बुद्ध ने एक बार किसी की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा था कि वाण लगने पर सबसे पहले उसे शरीर से निकालकर घाव की मरहम पट्टी करनी चाहिए, न कि तीर के बारे में जानने में लगना चाहिए। उसी तरह जब काल के तीर से जीवन विद्ध हो चुका है तो पहले इससे मुक्त होना होगा। इसके उपरांत ही सृष्टि और इसके निर्माणकर्ता के बारे चिंतन करना उपयुक्त है।
इस तरह यह भी स्पष्ट होता है कि काल के वाण से रहित होना भी ‘निर्वाण’ है। भगवान बुद्ध ने भी एक जिज्ञासु परिव्राजक के पूछने पर कहा है-‘जो राग-द्वेष और मोह का क्षय है, इसी को निर्वाण कहते हैं।’
निर्वाण की परिभाषा समझ लेने के बाद इसकी प्राप्ति की उत्सुकता जगनी स्वाभाविक है। भगवान बुद्ध के पास इसके उत्तर हैं। उनकी साधना पद्धति ‘निर्वाण’ की प्राप्ति की ओर ले जाती है। निर्वाण के साक्षात्कार के लिए बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग की ओर संकेत किया है। बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय में इसकी व्याख्या की गई है। यह आर्य आष्टांगिक मार्ग है।
इसमें चार प्रकार के ध्यान का नाम दिया गया है। जाप के मंत्र के सम्बन्ध में सभी बौद्धों में मतैक्य नहीं है। इसी कारण सभी बौद्ध एक ही मंत्र का जाप नहीं कर विभिन्न मंत्रों का जाप करते हैं। महर्षि संतसेवी कहते हैं कि संत-साधना या संतमत साधना की भांति ही बौद्ध धर्म में भी मानस-जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधन और शब्द-साधन वा नादानुसंधान की विधि का विधान पाते हैं। विविध बौद्ध सद्ग्रंथों में साधना की विधि बताई गई है।
‘दीघ निकाय’ में आसन मार कर बैठने, एकाग्र शुद्ध चित्त प्राप्त करने, मनोमय शरीर का निर्माण करने के लिए अपने चित्त को ध्यान में लगाने, को कहा गया है। इसी प्रकार क्रमशः दृष्टि योग और शब्द योग के लिए भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं।
यदि ‘निर्वाण’ के सम्बन्ध में बुद्ध वाणी का श्रवण करें तो वह निर्वाण विषयक उपदेश करते हुए कहते हैं कि ‘निर्वाण एक ऐसा आयतन हैं, जहां न तो पृथ्वी है, न जल है, न अग्नि है, न आकाश है….. न यह लोक है, न परलोक है, न चांद है, न सूर्य है। भिक्षुओं! न जाना होता है, न फिर च्युत होना पड़ता है, न उत्पन्न होना होता है।
वह आधार रहित है, आलंबन रहित है। इस तरह भगवान बुद्ध ने अपने साधना पूर्ण जीवन में मानव योनि में जन्म लेने की सार्थकता को प्रमाणित करने के लिए संसार के क्षणभंगुर, सुखों का तत्क्षण परित्याग किया और विरल साधना को पूर्ण कर मोक्ष का मार्ग दिखाया।
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