Bengal Election News : सवाल बंगाल का ही नहीं, देश की दशा-दिशा का भी

सामान्यतः हिंदी पट्टी, खासकर उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों को किंगमेकर कहा जाता है, लेकिन इस बार बांग्ला, द्रविड़ और असमिया जैसे भाषा-भाषी पांच प्रदेशों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, जो बहुत मायने रखते हैं। विशेषकर पश्चिम बंगाल का परिणाम देश की दशा-दिशा पर खासा प्रभाव डालनेवाला है। मोदी-शाह की जोड़ी वाली भाजपा देश पर लगातार दूसरी बार राज कर रही है, जो प्रचंड हिंदुत्व और अबूझ पहेली बने राष्ट्रवाद के भावनात्मक प्रवाह से गदगद है।
बहुसंख्यक आबादी तो और भी गदगद है। उसका महंगाई, बेरोजगारी, अर्थ-व्यवस्था आदि-इत्यादि के दिनोंदिन कसते जा रहे शिकंजे से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। इस कारण जहां-जहां मोदी-शाह के पांव पड़ते हैं, विपक्षी खेमे में भगदड़ जैसी मच जाती है। कर्नाटक, मध्यप्रदेश, पुडुचेरी आदि उदाहरण हैं, यदि वहां गैरभाजपा दल जीत भी हासिल कर लेते हैं तो येन-केन प्रकारेण सत्ता घूम-घामकर भाजपा के ही पांव पखारने लगती है। साम, दाम, दंड, भेद दोनों नेताओं की अतिरिक्त योग्यता है।
इन परिस्थितियों में ममता बनर्जी के नेतृत्ववाली बंगाल तक ही सीमित तृणमूल कांग्रेस भाजपा के प्रचंड वेग का कितने राजनीतिक कौशल से मुकाबला कर पाती है, यह बड़ी उत्सुकता से वर्तमान देख-आंक रहा है। मोदी-शाह की जोड़ी को मात देकर ममता बंगाल में अपनी तीसरी पारी खेलने को हौसलामंद हैं। दस साल पहले उन्होंने ढाई दशकों की वाम सत्ता को ध्वस्त कर अपना सिक्का जमाया था। इसलिए उनको कमजोर मानना कतई अक्लमंदी नहीं होगी। बंगाल विजय के लिए भाजपा ने अरसा पहले से जिस प्रकार न केवल खुद को झोंक रखा है, अपितु इसके समानांतर साम, दाम, दंड, भेद पर अमल कर रही है, उससे ममता की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है।

रविवार को कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में मोदी की रैली में उमड़ी भीड़ निश्चय ही भाजपा को तसल्ली दे सकती है, किंतु भीड़ का अर्थशास्त्र और समाज शास्त्र अब छिपी बात नहीं रह गया है। इस भीड़ के बहाने मोदी ने जितनी बातें कही, वे आकर्षण तो पैदा करती हैं लेकिन सवाल आश्वस्ति का है। वे हर राज्य में ऐसे ही सब्जबाग दिखाते रहे हैं। यहां तक कि लोकसभा चुनावों में भी वे हर राज्य में उसका ही बनकर पेश आते हैं। एक बात और। पहले वे राज्यों के चुनाव के ठीक पूर्व उन-उन देशों में जरूर जाते थे, जहां उस राज्य के लोग रोजी-रोजगार में लगे रहते हैं। इस बार उनकी प्रस्तावित ढाका यात्रा को उसी नजरिये से देखना गलत नहीं होगा।
दूसरी अहम बात यह कि दलबदलुओं को भाजपा के नये अवतार ने जिस प्रकार प्रतिष्ठा देना प्रारंभ किया है, बंगाल उसका अपवाद नहीं है। तीसरी बात यह भी कि भाजपा के कैडर दलबदलुओं को सिर-माथे बैठाने के अब अभ्यस्त होते जा रहे हैं। ममता से रूठे और ममता द्वारा ठुकराये गये नेता अपने ‘शुद्धिकरण संस्कार’ की मार्फत भाजपा की झोली भर रहे हैं। कहा जाता रहा है कि ब्रिगेड मैदान जिसका, बंगाल उसका। मोदी ने तो उसको भर दिया, जवाब में क्या ममता भी ऐसा ही करेेंगी?
मोदी-शाह की भाजपा जिस प्रकार चुनाव के काफी पहले से चुनाव वाले स्थलों का बारीकी से अध्ययन-विश्लेषण करती है, वही रास्ता अख्तियार कर ममता ने इस बार एक तो अपने 15 मुस्लिम उम्मीदवारों को बेटिकट कर दिया, दूसरे 50 साल से कम उम्र वाले 107 प्रत्याशियों को टिकट दिया, तीसरे एससी-एसटी के दो दर्जन उम्मीदवार खड़े किये और इसी प्रकार 50 महिलाओं को भी मौका दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने एक साथ सभी सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा कर दूसरे से आठवें दौर के मतदान वाले स्थलों के प्रत्याशियों को चुनाव प्रचार का पर्याप्त मौका भी दे दिया।
यह अलग बात है कि कांग्रेस व वाम गठबंधन ममता के लिए अतिरिक्त सिरदर्द हो सकता है लेकिन जैसा कि लग रहा है, यह गठबंधन धीमे चलो की नीति अपनाकर उनके लिए कुछ सुविधाजनक स्थिति बना सकता है। ओबैसी बिहार जैसी परिस्थितियां बनाने को बेताब हैं। वे भले ही कुछ जगह पा लें लेकिन अपनी गति-मति के कारण क्रमशः वे भाजपा की बी टीम के आरोपों से भी घिरते जा रहे हैं। यूं इस अद्भुत लोकशाही में हर कोई चुनाव लड़ने को आजाद है, जिसका किसी को फायदा हो जाता है तो किसी को नुकसान, जिसकी व्याख्या अपने-अपने तरीके से करने की परिपाटी भी रही है।

हम पीछे लौटें तो पहले कांग्रेस आज की भाजपा के ही पोजिशन में थी। तमाम दल टूट-टाटकर उसकी ही शरण में आते थे। अब वह प्रवाह भाजपा की ओर हो रहा है। कांग्रेस की उस चाल-ढाल ने क्षेत्रीय दलों के उभार को हवा दी। आज भी सचेत कदमों से चलने वाले क्षेत्रीय या छोटे दल अलग-अलग सूबों में अपनी ‘सूबेदारी’ बरकरार रखे हुए हैं। झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र आदि इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। तृणमूल कांग्रेस भी आज की तारीख तक उसी श्रेणी में है। क्षेत्रीय दल परिवारवाद और व्यक्तिवाद की लाइन भी तय करते हैं। ममता भी यही आरोप झेल रही हैं। बंगाल के मतदाता अपेक्षाकृत अधिक जागरूक समझे जाते हैं। वह ज्ञानियों और आंदोलनकारियों की भूमि रही है। वह क्षेत्र राम से अधिक रणचंडी का साधक-पूजक रहा है। ऐसी स्थिति में वहां के मतदाता निश्चय ही जो भी करेंगे, अपना हित-अहित सोच-समझकर ही करेंगे।
देश में अभी अर्थ-व्यवस्था चर्चा में है और सौ दिनों से अधिक काल से ऐतिहासिक रूप से किसान आंदोलन चल रहा है। भाजपा का गेरूआ रंग बहुत तेजी से देश में फैला है और वह बंगाल में प्रवेश तो पहले ही पा चुकी थी लेकिन इस बार अतिरिक्त दम-खम से चुनाव लड़ रही है। ऐसे में यदि भाजपा बंगाल विजय की ओर बढ़ती है तो इसका पूरे देश पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इस प्रभाव का विश्लेषण प्रभावित लोग अपने-अपने ढंग से करेंगे, अभी भी कर रहे हैं।