भई परापत मानुख देहुरिया…

हम किसी सफर पर निकलते हैं तो मंजिल तक पहुंचने के लिए हम नक्शे का सहारा लेते हैं। नक्शे के अनुसार याला तय करते हुए हम मंजिल तक आसानी से पहुंच जाते हैं। यह मानव जीवन भी हमें जो मिला है, यह भी एक सफर है, अपनी मंजिल प्राप्त करने, एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए।
यह उद्देश्य है प्रभु परमात्मा की जानकारी, परमात्मा की प्राप्ति करके यह आत्मा बार-बार के जन्म-मरण के बंधन (चैरासी लाख योनियों) से मुक्ति प्राप्त करे, मोक्ष को प्राप्त करे। इस मंजिल को पाने के लिए वेद शास्त्र हमारे लिए नक्शे का काम करते हैं। आदि ग्रंथ में लिखा है:-
भई परापत मानुख देहुरिया, गोविंद मिलन की एहो तेरी बेरिया।
बहुत भाग्यशाली है मानव तुझे यह जन्म प्राप्त हुआ, यह गोविंद (परमात्मा) को मिलने का अवसर है। वेद के एक मंल में मनुष्य प्रार्थना कर रहा है:-
अस्तो मा सद्मय। तमसो मा ज्योर्तिगमय। मृत्यु मा अमृतगमय।
मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अंधकार से रौशनी की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।
परमात्मा सत्य है, इसके सिवाय जो भी है सब असत्य है मिथ्या है। परमात्मा ही प्रकाश है बाकी जो भी दिखाई देता है वो इसका अंश है। परमात्मा को नहीं देखा, तो सब घोर अंधकार है। परमात्मा अमर है बाकी सबकुछ नाशवान है, समाप्त होने वाला है। हम कहते हैं तीन काल है सत्य तू, मिध्या है संसार फिर भी इस सत्य से बहुत दूर हर पल मिथ्या के साथ जुड़े हुए हैं। जो भी हमारी आंखें देखती हैं सब नाशवान है और असुंदर है। आज
अगर फूल बहुत सुंदर है, राजा गुलाब चुन लिया जाता है परन्तु दो चार दिनों के बाद ही कूड़े के ढेर का हिस्सा बन जाता है। इसी तरह हर वस्तु कुछ समय पश्चात सुंदर नहीं रहती। ईश्वर सदा है, एकरस है और सदा सुंदर है।
है जो है सुंदर सदा, नहीं सो सुंदर नाहिं। नहीं सो परगट देखिए, है सो दीखत नाहि।।
भाव जो सदा रहने वाला है वहीं सदा सुंदर है। जो अस्थाई है, वह सुंदर नहीं है। जो न रहने वाली वस्तु है उसे हम इन आंखों से प्रकट देखते हैं। पर जिस सदा रहना है, यह दिखाई नहीं देता। मानव इसी को देखने की प्रार्थना कर रहा है-मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। इसी से मिलने की तड़प मीरा जी को गुरु रविदास की शरण में लेकर आई तो भक्तिन मीरा कह उठी अविनाशी, अविनाशी, अविनाशी रे मैंने देखा है घट घट
वासी रे । तमसो मा ज्योतिर्गमय: मुझे अंधकार से
रौशनी की ओर ले चलो। आरती गाते हुए सुबह शाम हम प्रार्थना करते हैं, प्रभु तुम अगोचर हो दिखाई नहीं देते
किस विधि मिलूं दयामय तुमको, मैं कुमति मुझे प्रभु अपने मिलने की विधि बताओं, मैं अंधकार में हूं। परमात्मा को देख पाना ही प्रकाश है और न देख पाना अंधकार है। इस अंधकार से रौशनी की ओर जाने का मार्ग गुरु गीता में बताया है-
अज्ञान तिमिर अन्धस्य, ज्ञान अंजन वाक्या।
येन मिलितं चक्षु तस्मै श्री गुरवे नमः ।। (गुरुगीता)
अज्ञान के घोर अंधकार को ज्ञान रूपी अंजन (काजल) की सलाई से दूर किया, जिस श्री गुरु (शरीर में जो गुरु हैं) ने यह चक्षु दिए ऐसे गुरु को बार-बार नमस्कार
अखंड मण्डलाकार व्यांप्त येन चराचरम।
तत पदम दर्शितम तस्मै श्री गुरवै नमः ।। (गुरु गीता)
जो परमात्मा खण्डित नहीं होता, हर
चलायमान और स्थिर वस्तुओं (भाव कण कण) में व्याप्त है। ऐसे परमात्मा के जिसने दर्शन कराए, श्री गुरु को बार-बार नमस्कार। आदि ग्रंथ में लिखा है
ज्ञान अंजन गुर दिया अज्ञान अंधेर विनाश।
हर किरपा ते संत भेटेया नानक मन परकाश।।
ज्ञान का अंजन गुरु ने देकर अज्ञानता के अंधकार को दूर कर दिया। परमात्मा ने कृपा की, संत से मिला दिया, जिन्होंने मन में प्रकाश कर दिया।
मृत्यु मा अमृतगमय : मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से बना है, यह पांच तत्व अपने आप में क्रियाशील नहीं है, इनमें छठा तत्व जीव, आत्मा जो परमात्मा का अंश है यही चेतन सत्ता है, जीवित है और शरीर को चलाती है। यह जीवात्मा शरीर से निकल जाए तो शरीर निर्जीव (जीव के बिना) हो जाता है, क्रियाशील नहीं रहता। यह आत्मा मानव शरीर में अगर अपने निज स्वरूप, अपने घर
को, परमात्मा को जान ले तो बार-बार शरीर परमात्मा में विलीन हो जाती है। पानी की बूंद सागर में गिरकर सागर ही हो जाती है उसी प्रकार यह आत्मा ब्रह्म को जानकार ब्रह्म में ही समा जाती है। श्री मद्भगवद्गीता में जहां श्री कृष्ण जी ने कहा है कि आत्मा बार-बार शरीर धारण करती है वहां यह भी कहा है कि परमात्मा को जानने के बाद यह आत्मा बार-बार जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाती है। गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है-
जन्म कर्म च मे दिव्यम एवं यो वेत्ति तत्वतः ।
द्वेह त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म न एति माम एति सोऽर्जुनः ।। 4-9
हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म आलौकिक (दिव्य) ही हैं। जो (मेरे) तत्त्व (निराकार) रूप को जानते हैं देह त्यागते हुए उनका पुनर्जन्म नहीं होता (वें) मेरे में ही लीन हो जाते हैं। एक और श्रोक में लिखा है
शुक्ल कृष्णे गती होते जगतः शाश्वते मते।
एकया याति अनावृत्तिम अन्यया आवततें पुनः ।। 8-26
जगत के पुरातन मत के अनुसार (शरीर छोड़ते हुए) (कुछ मनुष्य) अंधकार के साथ (और कुछ) रोशनी के साथ जाते हैं। एक (जो रोशनी, परमात्मा की जानकारी के साथ) जाते हैं वे फिर (दुनिया में) नहीं आते, (और) दूसरे (जो अंधकार के साथ बिना परमात्मा को प्राप्त किए हुए) जाते हैं। बार-बार वापिस आते हैं।
भाव मनुष्य जीवन हीरे जैसा जन्म है, इसका मोल डाल लें। इसे व्यर्थ न गवाएं। मानस में लिखा है-
निकट प्रभु सूझे नहीं घृग घृग ऐसी जिंद। तुलसी इस संसार को भयो मोतिया बिंद।। अवतार बाणी में लिखा है-
मानुष जनम आखरी पौड़ी तिलक गया ते बारि गई।
कहे अवतार चैरासी वाली घोल कमाई सारी गई।।
सतगुरु के सानिध्य में ब्रह्मज्ञान पाकर इस लोक में भी सुख पाना और परलोक को भी संवारना ही जीवन का उद्देश्य है।
लोक सुखी परलोक सुहेले।
नानक हर प्रभ आपे मेले।।