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क्रियायोग की सरिता में डुबकी लगाने के लिए प्रोत्साहन

लाहिड़ी महाशय की 196वीं जयंती पर विशेष

डॉ मंजु लता गुप्ता

“पौराणिक कथाओं में जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरकर अपने तृषातुर भक्त भगीरथ को अपने दिव्य जल से संतुष्ट किया, उसी प्रकार क्रियायोग रूपी दिव्य सरिता, हिमालय की गुह्य गुफाओं से मनुष्य की कोलाहल भरी बस्तियों की ओर बह चली…”. कौन हैं ये, इस युग के भगीरथ, सांसारिक दुखों से त्रस्त जन-जन को आध्यात्मिक प्रोत्साहन प्रदान करने वाले संत? वे हैं लाहिड़ी महाशय, जिनका कहना था– “ईश्वरानुभूति के गुब्बारे में प्रतिदिन उड़कर मृत्यु की भावी सूक्ष्म यात्रा के लिए अपने को तैयार करो….क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग द्वारा देह कारागार से मुक्त होकर परमतत्त्व में भाग निकलना सीखो।”

उन्होंने अपने विषय में लिखने के लिए अपने शिष्यों को सदा मना किया तथापि हम हृदय से आभार प्रकट करते हैं, ‘एक अद्वितीय वृतांत’ कहे जाने वाले उत्कृष्ट ग्रंथ ‘योगी कथामृत’ के लेखक परमहंस योगानन्द का, जिन्होंने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से हमें इस ईश्वर सदृश ऋषि के बारे में जानने का सुवसर प्रदान किया।

लाहिड़ी महाशय ने अपनी दूरदर्शिता से माँ की गोद में ही इस नन्हें शिशु मुकुन्द, जो बाद में योगानन्द बने, को पहचान लिया था और कहा था, “छोटी माँ! तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। एक आध्यात्मिक इंजन बनकर वह अनेक आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जाएगा।” और सचमुच इस भविष्यवाणी को साक्षात कर योगानन्द ने हममें से प्रत्येक के लिए, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) और विश्व स्तर पर सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की, जो पिछले सौ से भी अधिक वर्षों से इस महान् ध्यान की प्रविधि, जो गणित के समान काम करती है, को सिखाने का काम कर रही है।

30 सितंबर 1828 को लाहिड़ी महाशय अपने जन्म से ले कर 26 सितंबर 1895 को अपनी सांसारिक देह को त्याग करने के पश्चात भी सदा सर्वव्यापक चेतना में वास करते हुए क्रियायोग अभ्यासियों के संरक्षण का जिम्मा ले, परामर्श दिया कि– “यह याद रखो कि तुम किसी के नहीं हो और कोई तुम्हारा नहीं….किसी दिन तुम्हें इस संसार का सब कुछ छोड़कर चल देना होगा, इसलिए अभी से ही भगवान को जान लो।” वे कहते थे “ध्यान में अपनी सभी समस्याओं का समाधान ढूँढ़ो।”

लाहिड़ी महाशय ने गृहस्थ जीवन का अनुसरण करते हुए संतुलित जीवन का सर्वोत्तम उदाहरण आज के युग के लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। कमल के समान इस संसार की दलदल से पृथक, आंतरिक वैराग्य के साथ ईश्वरीय चेतना में रहने वाले इस महान् गुरु ने आश्वस्त किया कि ईश्वर से संपर्क आत्म प्रयास से संभव है।

उनकी पत्नी काशिमणि बताती हैं – “उन्होंने मेरे ललाट को स्पर्श किया। घूमते हुए प्रकाश-पुंज मुझे दिखाई देने लगे; धीरे धीरे वह सारा प्रकाश जगमगाते नीले रंग के आध्यात्मिक नेत्र में परिवर्तित हो गया जिसके चारों ओर सुनहरा गोला था और बीच में एक सफ़ेद पंचकोणीय तारा।” माता काशीमणि को यह अधिचेतन अनुभव प्रदान कर लाहिड़ी महाशय ने कहा, “अपनी चेतना को उस तारे में से अनंत के साम्राज्य में ले जाओ।”

ऐसे सर्वज्ञ गुरु का मानसदर्शन कर आइए हम भी इन आध्यात्मिक स्पंदनों से भरी इस पावन बेला में उनके आविर्भाव दिवस और समाधि दिवस में शामिल होकर ईश्वर के साथ एकरूपता के प्रकाश-पुंज के दर्शनों की पुष्टि करें।

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