गणेश चतुर्थी : भगवान श्रीगणेश का नाम जपने से सब कष्ट हो जाते हैं दूर
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सभी देवों में भगवान श्रीगणेश को सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है। विघ्नहर्ता भगवान श्रीगणेश की सर्वप्रथम पूजा के बाद ही अन्य देवी देवताओं की पूजा अर्चना का विधान है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जन्मे भगवान श्रीगणेश एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। भगवान श्रीगणेश अपने चारों हाथों में क्रमशः पाश, अंकुश, मोदकपात्र तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। भगवान श्रीगणेश रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीतवस्त्रधारी हैं। भगवान श्रीगणेश रक्त चंदन धारण करते हैं तथा उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। भगवान श्रीगणेश अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
एक रूप में भगवान श्रीगणेश उमा−महेश्वर के पुत्र हैं। वे अग्रपूज्य, गणों के ईश, स्वस्तिक रूप तथा प्रणव स्वरूप हैं। उनके अनन्त नामों में सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र तथा गजानन− ये बारह नाम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन नामों का पाठ अथवा श्रवण करने से विद्यारम्भ, विवाह, गृह−नगरों में प्रवेश तथा गृह नगर से यात्रा में कोई विघ्न नहीं होता है।
- पौराणिक कथा
पद्म पुराण के अनुसार एक बार श्रीपार्वतीजी ने अपने शरीर के मैल से एक पुरुषाकृति बनायी, जिसका मुख हाथी के समान था। फिर उस आकृति को उन्होंने गंगाजी में डाल दिया। गंगाजी में पड़ते ही वह आकृति विशालकाय हो गयी। पार्वतीजी ने उसे पुत्र कहकर पुकारा। देव समुदाय ने उन्हें गांगेय कहकर सम्मान दिया और ब्रह्माजी ने उन्हें गणों का आधिपत्य प्रदान करके गणेश नाम दिया। दूसरी ओर लिंगपुराण में उल्लेख मिलता है कि एक बार देवताओं ने भगवान शिव की उपासना करके उनसे सुरद्रोही दानवों के दुष्टकर्म में विघ्न उपस्थित करने के लिए वर मांगा। आशुतोष शिव ने तथास्तु कहकर देवताओं को संतुष्ट कर दिया। समय आने पर गणेशजी का प्राकट्य हुआ। उनका मुख हाथी के समान था और उनके एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे में पाश था। देवताओं ने सुमन−वृष्टि करते हुए गजानन के चरणों में बार−बार प्रणाम किया। भगवान शिव ने गणेशजी को दैत्यों के कार्यों में विघ्न उपस्थित करके देवताओं और ब्राह्मणों का उपकार करने का आदेश दिया। इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण, स्कन्दपुराण तथा शिवपुराण में भी भगवान गणेशजी के अवतार की भिन्न−भिन्न कथाएं मिलती हैं।
- भगवान गणेश जी का परिवार
प्रजापति विश्वकर्मा की सिद्धि−बुद्धि नामक दो कन्याएं भगवान गणेशजी की पत्नियां हैं। सिद्धि से शुभ और बुद्धि से लाभ नामक शोभा सम्पन्न दो पुत्र हुए। शास्त्रों और पुराणों में सिंह, मयूर और मूषक को गणेशजी का वाहन बताया गया है। गणेश पुराण के क्रीडाखण्ड में उल्लेख है कि कृतयुग में गणेशजी का वाहन सिंह है। वे दस भुजाओं वाले, तेज स्वरूप तथा सबको वर देने वाले हैं और उनका नाम विनायक है। त्रेता में उनका वाहन मयूर है, वर्ण श्वेत है तथा तीनों लोकों में वे मयूरेश्वर नाम से विख्यात हैं और छह भुजाओं वाले हैं। द्वापर में उनका वर्ण लाल है। वे चार भुजाओं वाले और मूषक वाहन वाले हैं तथा गजानन नाम से प्रसिद्ध हैं। कलियुग में उनका धूम्रवर्ण है। वे घोड़े पर आरुढ़ रहते हैं, उनके दो हाथ हैं तथा उनका नाम धूम्रकेतु है। भगवान श्रीगणेश का जप का मंत्र ‘ओम गं गणपतये नमः’ है। भगवान को मोदक बेहद पसंद हैं।
- भगवान गणेश का वक्रतुण्ड अवतार
भगवान श्रीगणेश का पहला अवतार भगवान वक्रतुण्ड का है। ऐसी कथा है कि देवराज इन्द्र के प्रमाद से मत्सरासुर का जन्म हुआ। उसने दैत्यगुरु शंकराचार्य से भगवान शिव के पंचाक्षरी मंत्री ‘ओम नमः शिवाय’ की दीक्षा प्राप्त कर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसे अभय होने का वरदान दिया। वरदान प्राप्त कर जब मत्सरासुर घर लौटा तब शुक्राचार्य ने उसे दैत्यों का राजा बना दिया। दैत्य मंत्रियों ने शक्तिशाली मत्सर को विश्व विजय की सलाह दी। शक्ति और पद के मद से चूर मत्सरासुर ने अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वी के राजाओं पर आक्रमण कर दिया। कोई भी राजा महान असुर के सामने टिक नहीं सका। कुछ पराजित हो गये और कुछ प्राण बचाकर कन्दराओं में छिप गये। इस प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी पर मत्सरासुर का शासन हो गया।
पृथ्वी को अपने अधीन कर उस महापराक्रमी दैत्य ने क्रमशः पाताल और स्वर्ग पर भी चढ़ाई कर दी। शेष ने विनयपूर्वक उसके अधीन रहकर उसे कर देना स्वीकार कर लिया। वरुण, कुबेर, यम आदि समस्त देवता उससे पराजित होकर भाग गये। इन्द्र भी उसके सम्मुख नहीं टिक सके। मत्सरासुर स्वर्ग का भी सम्राट हो गया। असुरों से दुखी देवता ब्रह्मा और भगवान विष्णु को साथ लेकर कैलास पहुंचे। उन्होंने भगवान शंकर को दैत्यों के अत्याचार का सारा समाचार सुनाया। भगवान शंकर ने मत्सरासुर के इस दुष्कर्म की घोर निंदा की। यह समाचार सुनकर मत्सरासुर ने कैलास पर भी आक्रमण कर दिया। भगवान शिव से उनका घोर युद्ध हुआ। परन्तु त्रिपुरारी भगवान शिव भी उसके समक्ष नहीं ठहर सके। उसने उन्हें भी कठोर पाश में बांध लिया और कैलास का स्वामी बनकर वहीं रहने लगा। चारों तरफ दैत्यों का अत्याचार होने लगा।
दुखी देवताओं के सामने मत्सरासुर के विनाश का कोई मार्ग नहीं बचा। वे अत्यन्त चिंतित और दुर्बल हो रहे थे। उसी समय वहां भगवान दत्तात्रेय आ पहुंचे। उन्होंने देवताओं को वक्रतुण्ड के एकाक्षरी मंत्र ‘गं’ का उपदेश दिया। समस्त देवता भगवान वक्रतुण्ड के ध्यान के साथ एकाक्षरी मंत्र का जप करने लगे। उनकी आराधना से संतुष्ट होकर तत्काल फलदाता वक्रतुण्ड प्रकट हुए। उन्होंने देवताओं से कहा− आप लोग निश्चिंत हो जायें। मैं मत्सरासुर के गर्व को चूर-चूर कर दूंगा। भगवान वक्रतुण्ड ने अपने असंख्य गणों के साथ मत्सरासुर के नगर को चारों तरफ से घेर लिया। भयंकर युद्ध छिड़ गया। पांच दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा। मत्सरासुर के सुंदर प्रिय एवं विषय प्रिय नामक दो पुत्र थे। वक्रतुण्ड के दो गणों ने उन्हें मार डाला। पुत्र वध से व्याकुल मत्सरासुर रणभूमि में उपस्थित हुआ। वहां उसने भगवान वक्रतुण्ड को तमाम अपशब्द कहे। भगवान वक्रतुण्ड ने प्रभावशाली स्वर में कहा, ‘यदि तुझे प्राण प्रिय हैं तो शस्त्र रखकर मेरी शरण में आ जा− नहीं तो निश्चित मारा जायेगा।’
वक्रतुण्ड के भयानक रूप को देखकर मत्सरासुर अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसकी सारी शक्ति क्षीण हो गयी। भय के मारे वह कांपने लगा तथा विनयपूर्वक वक्रतुण्ड की स्तुति करने लगा। उसकी प्रार्थना से संतुष्ट होकर दयामय वक्रतुण्ड ने उसे अभय प्रदान करते हुए अपनी भक्ति का वरदान दिया तथा शांत जीवन बितान के लिये पाताल जाने का आदेश दिया। मत्सरासुर से निश्चिंत होकर देवगण वक्रतुण्ड की स्तुति करने लगे। देवताओं को स्वतंत्र कर प्रभु वक्रतुण्ड ने उन्हें भी अपनी भक्ति प्रदान की।
- भगवान गणेश का मयूरेश्वर अवतार
त्रेता में भगवान गणेश ने मयूरेश्वर नाम से अवतार ग्रहण कर अनेक लीलाएं कीं और महाबली सिन्धु के अत्याचारों से सबको मुक्त किया। कठोर तपस्या एवं सूर्य की आराधना से वर पाकर सिन्धु अत्यन्त मदोन्मत्त हो गया। उसकी सेना में असुरों का प्राबल्य हो गया था, जिससे न्याय और सत्य धर्म के मार्ग पर चलने वालों को वह पीडि़त करने लगा। अकारण नर नारियों, अनाथ, अबोध, छोटे शिशुओं की हत्या करने पर वह गर्व का अनुभव करता। पृथ्वी पर रक्त की सरिता बहने लगी। वह पाताल में गया और वहां उसने अपना आधिपत्य जमा लिया। ससैन्य स्वर्ग लोक में चढ़ाई कर वहां शचीपति इन्द्रादि देवताओं को पराभूतकर उसने स्वर्ग में अपना दानवी शासन फैला दिया। सर्वत्र हाहाकार मच गया।
इस भयंकर कष्ट से मुक्ति पाने के लिए देवताओं ने अपने गुरु बृहस्पति की शरण ली। उन्होंने पूजा से शीघ्र प्रसन्न होने वाले, परमाराध्य विनायक के संकष्ट चुतर्थी व्रत का अनुष्ठान बतलाया तथा उनका स्मरण करने के लिए निर्देश दिया। देवताओं ने वैसा ही किया। परमप्रभु विनायक प्रकट हुए। सभी देवगणों ने उनकी प्रार्थना की। परमप्रभु गणेश शिव प्रिया माता पार्वती के यहां अवतरित होकर पृथ्वी का भार उतारने का वचन देकर अन्तर्धान हो गये। माता पार्वती भी परमप्रभु गणेश का दर्शन प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर से उपदिष्ट एकाक्षरी गणेश मन्त्र (ग) का जप करने लगीं।
कुछ ही समय बाद भाद्रपद मास की शुक्ला चतुर्थी तिथि आयी। सभी ग्रह नक्षत्रों के शुभस्थ एवं अच्छे मंगलमय योग में विराट रूप में पार्वती के सम्मुख भगवान श्रीगणेश का अवतरण हुआ। माता पार्वती बोलीं− प्रभो! मुझे अपने पुत्र रूप का दर्शन कराइए। सर्वसमर्थ के लिए सब कुछ सम्भव है। तत्काल स्फटिक मणितुल्य षड्भुज शिशु क्रीड़ा करने लगा। उनके शरीर की शोभा कांति अद्भुत लावण्य एवं दीप्ति से सम्पन्न थी। उनका वक्ष स्थल विशाल था। उनके चरण कमलों से छत्र, अंकुश और ऊर्ध्व−रेखा युक्त कमल आदि शुभ चिन्ह थे। उनका नाम मयूरेश पड़ा। मयूरेश के आविर्भाव से ही प्रकृति में सर्वत्र एक दिव्य आनन्द की अनुभूति होने लगी। आकाश से देवता सुमन वृष्टि करने लगे। ऋषियों के आश्रम में आनन्द की लहर दौड़ गयी।
उनकी दिव्य लीलाएं आविर्भाव के समय से ही प्रारम्भ हो गयीं। इधर सिन्धु यह वृत्तान्त जानकर अत्यन्त भयभीत हो उठा। उसने बालक के वध के लिए अनेक असुरों को छद्मवेश में भेजना प्रारम्भ कर दिया, किंतु सब मारे गये। फिर उन्होंने दुष्ट वृकासुर तथा कुत्ते के रूपधारी नूतन नामक दैत्य का वध किया। अपने शरीर से असंख्य गणों को उत्पन्न कर कमलासुर की बारह अक्षौहिणी सेना का विनाश कर दिया तथा त्रिशूल से कमलासुर के मस्तक को काट डाला। उसका मस्तक भीमा नदी के तट पर जा गिरा। देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना पर गणेश वहां मयूरेश (मोरेश्वर) नाम से प्रतिष्ठित हुए।
दुष्ट दैत्य सिन्धु ने जब सभी देवताओं को अपने कारागार में बंदी बना लिया, तब भगवान ने दैत्य को ललकारा। भयंकर युद्ध हुआ। असुर सैन्य पुनः पराजित हुआ। सिन्धु के पुत्र धर्म और अधर्म भी मार डाले गये।
कुपित मायावी दैत्यराज अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से मयूरेश पर प्रहार करने लगा। परंतु सर्वशक्तिमान के लिए अस्त्र शस्त्रों का क्या महत्व। सभी निष्फल हो गये। अंत में महादैत्य सिन्धु मयूरेश के परशु प्रहार से निश्चेष्ट हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे दुर्लभ मुक्ति प्राप्त हुई। देवगण मयूरेश की स्तुति कररने लगे। भगवान मयूरेश ने सबको आनंदित कर, सुख शान्ति प्रदान किया, अंत में अपनी लीला का संवरण कर वे परम धाम को पधार गये।