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झारखंड : गरीबों के लिए अतिरिक्त आय का बेहतर साधन है साल बीज

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खूंटी। झारखंड के खूंटी, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम सहित लगभग सभी जिलों में साल या सखुआ के पेड़ भरपूर मात्रा में पाये जाते हैं। सखुआ के इन पेडों की पूजा आदिवासी और गैर आदिवासी समान रूप से करते आये हैं। बात सरहुल की हो या शादी-विवाह में मंडवा बनाने की, हर जगह इसे पवित्र मानकर पूजा-अर्चना की जाती है। यही कारण है कि सखुआ को पेड़ों का राजा कहा जाता है। साल के पड़ों से फर्नीचर से लेकर हर तरह के सामान बनाये जाते हैं।

साथ ही साल के पेड़ ग्रामीणों की आय के अतिरिक्त साधन भी है। जंगलों के किनारे रहने वाले अधिकतर लोग इसका उपयोग भोजन के रूप में भी करते हैं। यही कारण है कि मई और जून के महीने में महिला, पुरुष, बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सुबह होते ही नाश्ता-पानी लेकर सखुआ पेड़ के नीचे पहुंच जाते हैं और पेड़ों से गिरे साल के बीच को चुनने में व्यस्त हो जाते हैं। किसान बीजों को चुनकर जमा करते हैं और काफी मेहनत से बीज के छिलके को हटाते हैं। छिलका हटाने के बाद ग्रामीण उसे लेकर व्यापारी के पास पहुंचते हैं और बीज की बिक्री करते हैं। बाजार में इस समय साल के बीज 20 से 30 रुपये प्रति किलो की दर से व्यवसायी इसकी खरीद कर रहे हैं। बिना छिलका उतारे साल फूल को बेचने पर इसकी कीमत 10 से 15 रु प्रति किलो मिलती है। हालांकि इस वनोपज की खरीद-बिक्री के लिए सरकार द्वारा कोई नीति निर्धारित नहीं किये जाने से किसान औन-पौने दाम पर साल बीज बेचने को विवश हैं।

मानव जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण: अर्जुन बड़ाईक

साल के महत्व की चर्चा करते हुए खूंटी के सहायक वन सरंक्षक अर्जुन बड़ाईक कहते हैं कि सखुआ का जितना धार्मिक महत्व सखुआ पेड़ का है, उतना किसी भी वृक्ष का नहीं हैं। यह पेड़ के साथ गरीबों को भोजन भी देता है। पहले जब अकाल पड़ता था, तो गरीब लोग साल के बीज को पकाकर खाते थे। अब भी जंगलों में रहने वाले लोगों का यह मुख्य आहार है। बड़ाईक कहते हैं कि सखुआ का पेड़ अपने अगल-बगल के पौधों को प्राकृतिक रूप से जैविक विविधता में सहयोग करता है। इसलिए पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी साल के वृक्ष सबसे महत्वपूर्ण हैं।

एसीएफ ने कहा कि साल के बीज का उपयोग दवा बनाने के अलावा तेल और साबुन बनाने में भी होता है। तोरपा के रहने वाले वैद्य नंदू महतो कहते हैं कि सखुआ एक औषधीय पेड़ है। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में हजारों वर्षों से पित्त, ल्यूकोरिया, गोनोरिया, त्वचा रोग, पेट संबंधी विकार, अल्सार, घाव, दस्त और कमजोरी के इलाज में साल के बीज का उपयोग किया जाता है।

मेहनत के अनुरूप नहीं मिलती कीमत

कर्रा प्रखंड के जरिया जंगल में साल के बीज चुन रहीडेहकेला गांव की कुल्डा देवी, राधा देवी, सुमित्रा देवी और शकुंतला देवी ने कहा कि मेहनत के अनुरूप साल के बीजों की कीमत नहीं मिलती है। उन्होंने कहा कि दो पैसे की कमाई के लिए वे सुबह में बिना मुंह धोये बीज चुनने के लिए जगल आ जाती हैं। शकुंतला देवी ने बताया कि साल के बीज को चुनने के बाद उन्हें आग में जलाया जाता है। बाद में उसका छिलका हटाकर बाजार में बेचते हैं। सुमित्रा देवी ने बताया कि दिन भर में वे सात से आठ किलो बीज चुन लेती हैं। उन्होंने कहा कि इसका उपयोग वे घर में भोजन और दवा दोनों रूप में करते हैं।

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