ज्ञान-योग कर्म-योग एवं भक्ति-योग से मिलती है जीने की दिशा
- भगवद् गीता में मोक्ष प्राप्ति का संदेश
श्रीमद्भगवद् गीता एक संपूर्णग्रंथ है, गीता को गीतोपनिषद् भी कहा गया है। यह वैदिक ज्ञान से युक्त समस्त उपनिषदों का सार है। गीता के निष्ठा पूर्वक गहन अध्ययन से ज्ञान-योग कर्म-योग एवं भक्ति-योग से जुड़ कर जीवन को जीने की दिशा मिलती है। जहाँ इस सनातन ग्रंथ से निष्काम कर्म करने की प्रेरणा मिलती है वहीं भगवान श्री कृष्ण जी ने इसमें कहा है कि मनुष्य शरीर मात्र नहीं है, शरीर नाशवान है, इस शरीर को चलाने वाली आत्मा जो कि परमात्मा का अंश है, इसका नाश नहीं होता।
परमात्मा सर्वव्यापि है, हर स्थान पर समान रुप में व्यापक है। आत्मा इससे अनभिज्ञ होकर अंधकार में ग्रस्त अपने आपको शरीर ही मान बैठती है। भगवान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि देकर, ज्ञान यक्षु देकर इस अज्ञानता को दूर किया तो अर्जुन इस विराट प्रभु के चारो ओर दर्शन कर सका।
निराकार इश्वर जिसका कोई आकार नहीं , कोई रंग रुप नहीं, जिसे शस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती, पानी भिगोता नहीं, पवन उडा़ नहीं सकती, ऐसा विराट स्वरुप देखने के बाद अर्जुन चारों दिशआें में बार बार नमस्कार करता है। परमात्मा को जान लेने के बाद उसके सारे भ्रम दूर हो जाते है। गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है कि जो मुझे हर जगह देखता है उसकी सोच उसके भाव में परिवर्तन हो जाता है। उसे हरेक में मैं नजर आता हूँ गीता के 6वें अध्याय के 30वें श्लोक में लिखा है।
यों मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्य अहं न प्रणष्यामि स च मे न प्रणष्यति।।
जो मुझे सर्वत्र देखता है, वह सबको मुझमें देखता है उस से मैं दूर नहीं होता और वह मुझसे दूर नहीं होता भाव जिसे परमात्मा का ज्ञान मिल जाता है परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है वह हर क्षण इसी प्रभु में विचरण करता है। वह उठता, बैठता हुआ, सोता हुआ, जागता हुआ परमात्मा को अपने आस पास ही महसूस करता है। परमात्मा को एक पल के लिए भी अपने से दूर नहीं मानता। परमात्मा की जानकारी, परमात्मा की प्राप्ति हर युग में सभव है तभी गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा ‘‘संभवामि यूगे युगे’’ मै हर युग में संभव हूँ । इस परम पिता परमात्मा को जानने की विधि भी गीता मे लिखी हैः-
तत् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रष्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्षिनः।। 4 गीता
इस (प्रभु) को जानो, चरणों में नमस्कार करके (विनय पूर्वक) प्रश्न करके, सेवा से जो ज्ञानी हैं (जिनके पास परमात्मा का ज्ञान है) जिन्होने तत्व परमात्मा के दर्शन किए हैं, वे तुझे ज्ञान का उपदेश देंगे। भाव जिसने परमात्मा को जाना है उससे परमात्मा का ज्ञान लेकर फिर जीवन का हर धर्म भक्ति भरा कर्म होता है। ज्ञान प्राप्त करके मानव ज्ञान-योग कर्म-योग भक्ति-योग से जुड़ जाता है।
भगवान श्री कृष्ण जी ने जहाँ यह बताया कि मनुष्य बार बार जन्म लेता और मृत्यु को प्राप्त होता है जैसे हम वस्त्र बदलते है। वहाँ ज्ञान प्राप्त करके बार बार जन्म लेने से मुक्त होता है, मोक्ष प्राप्त करता है, ब्रह्म में ही समा जाता है। जन्म मरण के बंधन से छुटकारा पा लेता है। गीता में कहा हैः-
जन्म कर्म च में दिव्यं एव यो वेक्षि तत्वतः।
व्यक्तवा देहं पुर्नजन्म नैति मां एति सो अर्जुन।। 4-9 गीता
मेरे जन्म और कर्म दिव्य होते हैं जो तत्व (निराकार, अविनाशी) के रुप में जानता है। देह त्यागते हुए उसका पुर्न जन्म नहीं होता मुझमें समा जाता है।
भाव जिसे परमात्मा का ज्ञान, परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है वह बार बार जन्म लेने के बंधन से मुक्त हो जाता है। मुक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है। अगर यह अज्ञानता का अंधकार दूर न हुआ तो बार-बार मृत्यु लोक में आता है। गीता के 8वें अध्याय के 26वे श्लोक में लिखा हैः-
शुक्ल-कृष्णे गति हवेते जगतः शाष्वते मते।
एकया याति-अनावृतिम् अन्यया आवर्तते पुनः।।
जगत का पुरातन मत है (दुनिया से) जाने के दो ही मार्ग हैं अंधकार, प्रकाश । एक (प्रकाश में जाने वाले जिन्हे परमात्मा का ज्ञान है, रौशनी है ) जाते है तो वापिस नहीं आते। दूसरे ( जिन्हे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई) बार-बार आते हैं। भाव कोई कोई ही परमात्मा के अविनाशी को जान पाता है। अन्य एक श्लोक में लिखा हैः-भगवद्गीता अध्याय 7 श्लोक 3
मनुष्याणाम् सहस्त्रेषु कष्चित् यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कष्चित् मां वेसि तत्वतः।।
हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति का यत्न करता है। उन हजारों यत्न करने वालों में कोई एक मुझे जान पाता है (प्राप्त करता है) भाव हजारों में से काई परमात्मा की प्राप्ति का यत्नतो करता है और इस तरह हजारों यत्न करनेवालों में से कोई एक मुझे प्राप्त कर पाता है। परमात्मा को जानने के बाद ही इन्द्रियां संयमित कर्म करती है इसके बारें में भगवान श्री कृष्ण जी ने अध्याय 4 के 39वें श्लोक में लिखाः-
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिं अचिरेण अधिगच्छति।।
जो (दिव्य ज्ञानसे युक्त) श्रद्धावान ज्ञान प्राप्त करते हैं उसके बाद (उनकी) इन्द्रियां संयंमित होती है। ज्ञान प्राप्त करके (वें) तुरंत परम शान्ति को प्राप्त करते हैं। भाव हमारी आत्मा (जो कि परमात्मा का अंश है) अपने मूलको, अपने अस्तित्व को नहीं जान लेती तब तक अशांत है। शान्ति केवल परम सत्ता को जान कर हीं प्राप्त होती है और फिर सारी इन्द्रियां संयमित होकर कर्म करती है। अर्जुन को भी जब विराट स्वरुप को ज्ञान प्राप्त हुआ तो फिर उसके सभी कर्म प्रभु के निर्देष अनुसार संयमित होते गए और प्रभु को सर्मपित थे। फिर कर्म पर अपना अधिकार नहीं होता। हर कर्म कराने वाला प्रभु है यह एहसास बना रहता है।ज्ञान के बाद कर्म और भक्ति गीता का मूल संदेश है।