सर रतनजी टाटा: जिनकी उदारता से गोखले और महात्मा गांधी का आंदोलन हुआ था मजबूत
नई दिल्ली। आज हम अपनी जिंदगी के किसी भी हिस्से को उठाकर देखते हैं तो टाटा कंपनी के किसी न किसी ब्रांड से हमारा वास्ता पड़ ही जाता है। चाहे आप सड़क से जा रहे हों, हवाई यात्रा कर रहे हों, किसी होटल में ठहर रहे हों, या सिर्फ अपने घर पर भी हों…’टाटा’ आपकी जिंदगी का अहम हिस्सा है। टाटा समूह के एक ऐसे ही अहम सदस्य थे सर रतनजी जमशेदजी टाटा, जिनके लिए बिजनेस सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण का साधन भी था।
उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले के ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ और दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के रंगभेद विरोधी आंदोलन के लिए दिल खोलकर दान दिया था। 20 जनवरी, 1871 को जन्मे रतन टाटा सामाजिक और परोपकारी मामले में अपने पिता जमशेदजी टाटा के नक्शेकदम पर चले तो दूसरी तरफ उन्होंने अपने भाई सर दोराबजी के साथ मिलकर टाटा बिजनेस का बखूबी विस्तार भी किया था।
गोपाल कृष्ण गोखले की ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ एक ऐसी संस्था थी जिसका उद्देश्य राष्ट्र की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करना था। रतनजी टाटा ने इस संस्था के कामकाज में गहरी रुचि ली और 1905 से इसकी शुरुआत से लेकर तय किया कि वह अगले 10 सालों तक इसका खर्च खुद उठाएंगे। चाहे वह इंग्लैंड में हों या भारत में, गोखले के साथ नियमित तौर पर संपर्क में रहते थे और संस्था की सभी गतिविधियों की जानकारी रखते थे।
ऐसे ही रतनजी टाटा ने दक्षिण अफ्रीका के नटाल में महात्मा गांधी के संघर्ष में उनका साथ दिया। उन्होंने 1909 से 1913 के बीच, महात्मा गांधी के आंदोलन में डोनेट किया। जिससे बापू वहां भारतीयों के हक की लड़ाई लड़ते रहें। महात्मा गांधी ने लिखा था, “रतनजी टाटा के इतने बड़े दान से साफ है कि अब हिंदुस्तान जाग उठा है। उनके दान से हमारे आंदोलन को बहुत बल मिला है। पारसी लोग तो दुनियाभर में दरियादिली के लिए मशहूर हैं। रतनजी टाटा ने भी उसी दरियादिली की मिसाल पेश की है।”
इस तरह से रतनजी टाटा ने भौतिक और नैतिक दोनों तौर पर महात्मा गांधी को अपना सहयोग दिया था। परोपकार और राष्ट्र निर्माण टाटा समूह की वह बुनियादी सोच है जिसकी शानदार अभिव्यक्ति सर रतन टाटा थे। जिन्होंने प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित लोगों की मदद के लिए, स्कूलों और अस्पतालों के लिए भी उदारता से दान दिया।
रतनजी टाटा, कला और विरासत के भी बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने अपने निजी संग्रह से बड़ी संख्या में कलाकृतियां मुंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय (जिसे अब छत्रपति शिवाजी महाराज वास्तु संग्रहालय के नाम से जाना जाता है) को सौंप दी थी। उन्होंने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग संग्रहालय में रखने लायक प्राचीन चीजें ढूंढने के लिए पुरातात्विक खुदाई में डोनेट करने का फैसला तक किया। इसी डोनेशन से पाटलिपुत्र में पुरातात्विक खुदाई हुई जिसमें मौर्य वंश के सम्राट अशोक के सिंहासन कक्ष की खोज हुई थी। उनके डोनेशन से हुई खुदाई में अन्य कई ऐतिहासिक चीजें भी मिली जिनको अब पटना संग्रहालय में देखा जा सकता है।
इस तरह उनकी सोच ने आधुनिक भारत के इतिहास और समाज दोनों में अपना अहम योगदान दिया। 1916 में मानवता की सेवा के लिए उन्हें ‘नाइट’ की उपाधि दी गई थी। सर रतन अपने जीवन भर विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। इसलिए, ये कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि उन्होंने अपनी अधिकांश संपत्ति एक चैरिटेबल ट्रस्ट को दान कर दी थी। सर रतन टाटा ट्रस्ट की स्थापना 1919 में 80 लाख रुपये के कोष के साथ हुई थी। आज यह भारत के सबसे पुराने परोपकारी संगठनों में से एक है।
जुलाई 1916 के आसपास रतनजी टाटा बहुत बीमार हो गए थे और अपने डॉक्टर की सलाह पर उन्हें अक्टूबर 1916 में इंग्लैंड ले जाया गया। श्रेष्ठ इलाज मिलने के बावजूद उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई और 5 सितंबर, 1918 को कॉर्नवाल में उनका निधन हो गया था। वह अपने पीछे अपनी पत्नी लेडी नवाजबाई को छोड़ गए थे जिससे उन्होंने साल 1892 में शादी की थी। सर रतन टाटा को लंदन के पास ब्रुकवुड में उनके पिता के बगल में दफनाया गया था।
–आईएएनएस