ट्रम्प की नीतियों से बढ़ सकता है भारत का आर्थिक संकट
डॉ. अजीत रानाडे
ट्रम्प की नीतियां हमें सीधे चीनी डंपिंग खतरे, शेयर बाजारों से विदेशी निवेशकों के पलायन, कमजोर रुपये और परिणामस्वरूप तरलता की कमी, उच्च ब्याज दरों व मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति के माध्यम से प्रभावित कर रही हैं। बेशक, हमारे सभी आर्थिक संकटों के लिए ट्रम्प की नीतियों को दोष देना गलत है। हम राजकोषीय सीमाओं का भी सामना कर रहे है।
डोनाल्ड ट्रम्प ने दूसरी बार संयुक्त राज्य अमेरिका के सैंतालीसवें राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभाल लिया है। अपने दूसरे प्रयास में उन्होंने यह बड़ी चुनावी जीत हासिल की। इसके साथ ही वे एकमात्र पूर्व और पदारुढ़ अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिन्हें ऐसे अपराध में दोषी ठहराया गया है जिसमें आम तौर पर कठोर जुर्माना या जेल की सजा होती है। तो भी सजा सुनाने वाले न्यायाधीश ने होने वाले राष्ट्रपति को दंडित करने से इनकार कर दिया और उन्हें बिना शर्त छोड़ दिया।
उनके खिलाफ तीन अन्य आपराधिक और गुंडागर्दी के मामले भी हैं जिनमें कार्रवाई कभी भी शुरू हो सकती है या शायद नहीं भी हो सकती है। अपराधी के रूप में दोषी ठहराए जाने के बाद राष्ट्रपति ट्रम्प को अब कई देशों में प्रवेश से इनकार करने का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि भारत भी दोषी ठहराए गए अपराधियों को वीजा नहीं देता है। राष्ट्रपति ट्रम्प जिन देशों की यात्राएं करना चाहते हैं उन देशों के लिए यह एक संवेदनशील राजनयिक चुनौती पेश करने वाला विषय है।
ट्रम्प के राष्ट्रपति पद की यह एक अभूतपूर्व शुरुआत है। उनके लंबित आपराधिक मामलों की जानकारी होने के बावजूद लोगों ने उन्हें बहुत निर्णायक रूप से वोट दिया है। ट्रम्प ने जिन नीतियों की घोषणा की है तथा जिन्हें वे लागू करने की योजना बना रहे हैं, वे योजनाएं और भी लोकप्रिय हैं। उनके चुनावी समर्थन की तुलना में उनकी नीतियों को दस प्रतिशत अधिक अनुमोदन रेटिंग प्राप्त है। वे नीतियां क्या हैं? इनमें अवैध विदेशियों के खिलाफ कड़े कदम, एच1बी वीजा पर आने वाले वैध विदेशियों का प्रवेश प्रतिबंधित करना, विशेष रूप से मैक्सिको, कनाडा और चीन से आने वाले सामानों पर उच्च आयात शुल्क लगाना शामिल है।
उनके समर्थक व अन्य लोग भी इस बयानबाजी पर विश्वास करने लगे हैं कि विदेशी उत्पादक अमेरिकी उपभोक्ता बाजार का ‘दोहन’ करते हैं और अमेरिकी नौकरियों की चोरी करते हैं। इसलिए ट्रम्प के नए कार्यकाल में अब विदेशी आपूर्तिकर्ताओं को अमेरिकी उपभोक्ता तक मुफ्त पहुंच उपलब्ध नहीं होने दी जा रही है। अपने पिछले कार्यकाल के दौरान 2016 से 2020 तक उन्होंने अमेरिका में आयात किए जा रहे लगभग एक लाख करोड़ डॉलर के सामान पर उच्च टैरिफ लगाया था। वह टैरिफ अब और भी ज्यादा होगा। अमेरिकी आयकर विभाग की ‘आंतरिक राजस्व सेवा’ का अनुकरण करते हुए उन्होंने ‘बाहरी राजस्व सेवा’ स्थापित करने की घोषणा की है। ट्रम्प अपने मतदाताओं से कहते हैं कि अपनी जेब काटने के बजाय मैं उन गंदे विदेशियों की जेबें काटने जा रहा हूं जो मुक्त बाजार पहुंच का अनुचित लाभ उठाते हैं।
ट्रम्प 2.0 की नीतियों का भारत पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका है। सबसे पहले, अमेरिका में आने वाले चीनी सामानों पर उच्च शुल्क, जिसके कारण चीन उन उत्पादों को तीसरे देशों में भेज देगा। चीन मंदी और क्षमता से अधिक उत्पादन का सामना कर रहा है। इसका अर्थ यह है कि चीनी बहुत कम कीमत पर अन्य देशों में माल डंप करने की कोशिश करेगा जिनमें विशेष रूप से स्टील, अलौह धातुओं, उपभोक्ता, इलेक्ट्रॉनिक्स और रसायनों जैसी वस्तुएं शामिल हो सकती हैं। पहले से ही चीन के साथ भारत का 100 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार घाटा है जिसे कम करना मुश्किल साबित हो रहा है।
दूसरा प्रभाव सस्ता रूसी कच्चे तेल खरीदने के खिलाफ प्रतिबंधों के माध्यम से है। भारत को सस्ते कच्चे तेल की खरीद और अमेरिका व यूरोप को परिष्कृत पेट्रोल और डीजल निर्यात करने से फायदा हुआ। इसकी बारीकी से जांच होने की उम्मीद है तथा मामला और अधिक बिगड़ जाएगा। तीसरा प्रभाव मजबूत डॉलर के माध्यम से होता है जिसका अर्थ है रुपये का और कमजोर होते जाना। यह विदेशी निवेशकों को परेशान करता है और यह बड़े पैमाने पर पूंजी के बाहर जाने के रूप में परिलक्षित हुआ है। इस वर्ष जनवरी में यानी 17 जनवरी तक विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने 47,000 करोड़ यानी करीब 6 अरब डॉलर की निकासी की है और शेयर बाजार को बड़ी टक्कर मिली है।
इस जनवरी में हुई यह निकासी 2008 के बाद से सबसे अधिक है। डॉलर की निकासी से रुपया गिरकर 87 पर आ गया है। इसमें और गिरावट आ सकती है। रुपये की मजबूती को बचाने की कोशिश में भारतीय रिजर्व बैंक डॉलर बेचता है। जैसे ही एफआईआई बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है, डॉलर की कमी उभरकर सामने आती है जिससे रुपया कमजोर और डॉलर मजबूत हो जाता है। रुपये को और कमजोर होने से बचाने के लिए आरबीआई अपने कीमती विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर बेचता है।
एक अनुमान के अनुसार सितंबर, 2024 के अंत से आरबीआई ने समस्या के समाधान के लिए लगभग 40 अरब डॉलर बेचे होंगे। यह भारत के विदेशी मुद्रा के स्टॉक को कम करता है व बैंकिंग प्रणाली में तरलता को भी कम करता है। इसका शुद्ध परिणाम यह भी है कि रुपया अभी भी गिर रहा है तथा बैंकों को तरलता की कमी का सामना करना पड़ रहा है। दिसंबर, 2024 के अंत तक आरबीआई बैंकिंग प्रणाली में 2.5 लाख करोड़ रुपये की शुद्ध तरलता घाटे की रिपोर्ट कर रहा है। यह तरलता संकट अल्पकालिक ब्याज दरों को तेजी से बढ़ाता है।
यह अच्छी खबर नहीं है क्योंकि दूसरी तरफ आरबीआई पॉलिसी रेट (शॉर्ट टर्म रेपो रेट) को नीचे लाने की मांग की जा रही है। भारत सरकार के साथ-साथ आवास, रियल एस्टेट और व्यक्तिगत वित्त जैसे ब्याज संवेदनशील क्षेत्रों से कम ब्याज दरों की मांग आ रही है। इस तरह परिवारों की वास्तविक खर्च करने योग्य आय बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही है, जिसका श्रेय मुद्रास्फीति को देना होगा जो घरेलू बजट को खा रही है। वेतन पर्याप्त तेजी से नहीं बढ़ रहे हैं इसलिए उपभोक्ता खर्च वृद्धि में खामोशी दिखाई दे रही है जिससे जीडीपी वृद्धि के बारे में चिंताएं पैदा हो रही हैं। इस तरह इस साल जीडीपी वृद्धि दर पिछले साल के 8.2 प्रतिशत की तुलना में कम यानी 6.4 फीसदी है। अगले वर्ष भी विकास दर लगभग 6.5 प्रश रह सकती है
इस प्रकार ट्रम्प की नीतियां हमें सीधे चीनी डंपिंग खतरे, शेयर बाजारों से विदेशी निवेशकों के पलायन, कमजोर रुपये और परिणामस्वरूप तरलता की कमी, उच्च ब्याज दरों व मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति के माध्यम से प्रभावित कर रही हैं। बेशक, हमारे सभी आर्थिक संकटों के लिए ट्रम्प की नीतियों को दोष देना गलत है। हम राजकोषीय सीमाओं का भी सामना कर रहे हैं लेकिन केवल सरकारी खर्च से विकास को बढ़ावा देने से काम नहीं चलेगा। निजी निवेश खर्च में भी तेजी आनी होगी। यह उपभोक्ता विश्वास और मांग के बढ़ने पर निर्भर करता है जो रोजगार तथा मजदूरी वृद्धि पर निर्भर करता है। यह सब आपस में जुड़ा हुआ है। इस सबमें मनोविज्ञान एवं भावना को एक बड़ी भूमिका निभानी है।
दुनिया में इस बारे में अनिश्चितता है कि विश्व अर्थव्यवस्था के लिए राष्ट्रपति ट्रम्प कितने विघटनकारी होंगे। अगर वे यूक्रेन में संघर्षविराम के लिए जोर देते हैं तो यह एक प्लस पॉइंट होगा, लेकिन अगर अमेरिका हठवादी रवैये पर कायम रहता है तथा अधिक संरक्षणवादी, अलगाववादी और व्यापारवादी बन जाता है तो यह मुक्त व्यापार के लिए अच्छी खबर नहीं है। एच1बी वीजा में कटौती के उनके फैसले से भारत के सॉफ्टवेयर निर्यात को नुकसान पहुंच सकता है जो मौजूदा समय में अच्छा है। हम इस साल ट्रम्प-प्रभाव और घरेलू आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए एक ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चल रहे हैं।