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ट्रंप का टैरिफ वार और भारत का मौन हथियार

Insight Online News

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

अमेरिका और भारत के बीच संबंधों को आज के दौर में यदि किसी एक शब्द में बयान करना हो तो उसे “रणनीतिक सहजीवन” कहा जा सकता है। व्यापार, तकनीक, रक्षा और कूटनीति—हर क्षेत्र में दोनों देशों के हित आपस में गहरे जुड़े हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल के वर्षों में इस सहजीवन में टैरिफ का एक कांटा चुभो दिया है। कभी भारत को “टैरिफ किंग” और कभी “डेड इकोनॉमी” कहने वाले ट्रंप अब भारत से आने वाले सामान पर 50 प्रतिशत तक टैरिफ लगाने का ऐलान कर चुके हैं, जिसमें से 25 प्रतिशत पेनल्टी के रूप में जोड़ा गया है। इसके पीछे उनका तर्क है कि भारत रूस से तेल और हथियार क्यों खरीदता है, और क्यों अमेरिकी उत्पादों को भारत में बराबरी का मौका नहीं मिलता।

यहां यह समझना जरूरी है कि आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका और भारत का रिश्ता कैसा है। वित्तीय वर्ष 2024-25 में भारत-अमेरिका के बीच कुल द्विपक्षीय व्यापार 131.84 बिलियन डॉलर तक पहुंचा। इस दौरान भारत ने अमेरिका को 86.51 बिलियन डॉलर का निर्यात किया, जिसमें फार्मास्यूटिकल्स, रत्न-आभूषण और टेक्नोलॉजी सर्वाधिक रहे। वहीं अमेरिका से भारत में 45.33 बिलियन डॉलर का आयात हुआ, जिसमें कच्चा तेल, कोयला और विमान के पुर्जे शामिल हैं। अमेरिका लगातार कई वर्षों से भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है और भारतीय निर्यातकों के लिए सबसे बड़ा बाज़ार भी।

ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी का सीधा असर भारत के उन सेक्टरों पर पड़ेगा जो अमेरिका को बड़े पैमाने पर माल भेजते हैं, जैसे कपड़ा, जेम्स-एंड-ज्वेलरी, फार्मा और आईटी सर्विस। लेकिन कहानी का दूसरा पहलू भी है, और यही पहलू भारत के लिए ‘मौन जवाब’ का हथियार बन सकता है। ट्रंप चाहे भारत को “डेड इकोनॉमी” कहें, मगर यही अर्थव्यवस्था दर्जनों अमेरिकी कंपनियों के लिए सोने की खान है। भारत में इन कंपनियों की गहरी पैठ है। इतनी गहरी कि उनके उत्पाद और सेवाएं भारतीय उपभोक्ता के रोज़मर्रा के जीवन में घुल-मिल गए हैं। इनसे होने वाला मुनाफा सीधा अमेरिका के खजाने में जाता है। यदि भारत चाहे, तो वह इन कंपनियों पर टैरिफ, टैक्सेशन, या नियामकीय शर्तों के जरिए दबाव डाल सकता है। अमेरिकी कंपनियों का भारत में कारोबार अरबों डॉलर में है और इन पर कोई भी चोट सीधे अमेरिकी शेयर बाजार, रोजगार और मुनाफे को प्रभावित करेगी।

भारत में अमेरिकी कंपनियों की मौजूदगी हर क्षेत्र में फैली हुई है। ई-कॉमर्स में अमेज़न इंडिया, टेक्नोलॉजी में गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, मेटा और एपल। फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) में कोका-कोला, पेस्‍सिको, प्रॉक्टर एंड गैंबल या पीएंडजी, कोलगेट, फास्ट फूड में मेकडॉनल्‍ड, केएफसी, डोमिनोस्। लाइफस्टाइल में नाइकी, लेविस, स्केचर्स, जीएपी और बैंकिंग में सिटीग्रुप ये सभी कंपनियां आज भारत में बड़े पैमाने पर कारोबार कर रही हैं। उदाहरण के लिए अमेज़न इंडिया का भारत में वार्षिक कारोबार 8 से 10 बिलियन डॉलर के बीच आंका जाता है, जबकि कोका-कोला और पेस्‍सिको का संयुक्त भारतीय कारोबार 4 बिलियन डॉलर से अधिक है। माइक्रोसॉफ्ट और गूगल की भारतीय इकाइयां मिलकर सालाना 2 बिलियन डॉलर से ज्यादा का राजस्व अर्जित करती हैं।

इनमें से कई कंपनियां न केवल बिक्री से बल्कि भारतीय उपभोक्ताओं के डेटा से भी मुनाफा कमाती हैं। मसलन, मेटा के स्वामित्व वाले फेसबुक और इंस्टाग्राम पर भारत का यूज़र बेस दुनिया में सबसे बड़ा है, फेसबुक के लगभग 33 करोड़ और इंस्टाग्राम के 25 करोड़ सक्रिय उपयोगकर्ता भारत में हैं। इन प्लेटफॉर्म्स से होने वाली विज्ञापन आय का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका भेजा जाता है। गूगल के लिए भी भारत विज्ञापन बाजार में अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है, जिससे सालाना अरबों डॉलर की आमदनी होती है।

इसी तरह से फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) सेक्टर में अमेरिकी कंपनियों का दबदबा इतना है कि अगर भारत टैरिफ या प्रतिबंधात्मक कदम उठाए तो यह भारतीय उपभोक्ता बाजार के संतुलन को हिला सकता है। कोका-कोला और पेस्‍सिको मिलकर सॉफ्ट ड्रिंक बाजार के 70 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा रखते हैं। प्रॉक्टर एंड गैंबल और कोलगेट भारतीय टॉयलेटरीज़ बाजार में क्रमशः 20 और 50 प्रतिशत हिस्सेदारी रखते हैं। नेस्‍ले जोकि स्विस मूल की है लेकिन अमेरिकी साझेदारियों से भी जुड़ी है का मैगी नूडल्स सेगमेंट में लगभग 60 प्रतिशत मार्केट शेयर है।

फास्ट फूड सेगमेंट की बात करें तो मेकडॉनल्‍ड, केएफसी डोमिनोस् और स्टारबक्स भारतीय शहरी खाद्य संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान बना चुके हैं। डोमिनोस् अकेले ही भारत में सालाना 1.5 बिलियन डॉलर का कारोबार करता है, जबकि स्टारबक्स ने भारत में प्रवेश के बाद से प्रीमियम कॉफी बाजार को लगभग अपने कब्जे में कर लिया है। लाइफस्टाइल और फैशन सेक्टर में नाइकी, लेविस और स्केचर्स जैसे ब्रांड भारतीय युवाओं में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। लेविस का भारत में वार्षिक कारोबार करीब 300 मिलियन डॉलर है, जबकि स्केचर्स का भारतीय फुटवेयर बाजार में 5 प्रतिशत हिस्सा है और यह तेजी से बढ़ रहा है। गैप और गेस जैसे ब्रांड प्रीमियम और लक्जरी सेगमेंट में खास पहचान रखते हैं।

इन सबके बीच बैंकिंग और वित्त क्षेत्र भी अमेरिकी मौजूदगी से अछूता नहीं है। सिटीग्रुप का भारत में कॉरपोरेट लोन, इन्वेस्टमेंट बैंकिंग और क्रेडिट कार्ड सेगमेंट में मजबूत नेटवर्क है। सिटी इंडिया, जिसे आधिकारिक तौर पर सिटीग्रुप के नाम से जाना जाता है, एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निवेश बैंक और वित्तीय सेवा कंपनी है। भारत में, यह सिटी इंडिया के रूप में काम करता है, जो एक प्रमुख वित्तीय संस्थान है। इसके पास लगभग 25 लाख क्रेडिट कार्ड ग्राहक हैं और भारतीय बाजार से सालाना करीब 1 बिलियन डॉलर का राजस्व अर्जित करता है।

अगर भारत अमेरिकी टैरिफ के जवाब में इन कंपनियों पर आर्थिक चोट करना चाहे तो इसके कई रास्ते हैं। पहला, अमेरिकी उत्पादों और सेवाओं पर कस्टम ड्यूटी बढ़ाना, जिससे उनकी कीमतें बढ़ जाएं और वे प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाएं। दूसरा, डेटा प्रोटेक्शन, उपभोक्ता सुरक्षा और पर्यावरण मानकों को सख्ती से लागू करना, जिससे उनके परिचालन लागत में वृद्धि हो। तीसरा, ‘स्वदेशी’ ब्रांडों और स्टार्टअप्स को सरकारी प्रोत्साहन देकर अमेरिकी ब्रांडों की निर्भरता घटाना। चौथा, सरकारी खरीद और रक्षा अनुबंधों में अमेरिकी कंपनियों की प्राथमिकता कम करना।

स्‍वभाविक है, ऐसे कदमों के वैश्विक असर भी होंगे। सबसे पहले, इससे वैश्विक सप्लाई चेन प्रभावित होगी, हालांकि यह भी सच है कि भारत के लिए अमेरिकी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाना कोई आसान फैसला नहीं होगा। इन कंपनियों में लाखों भारतीय प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पाते हैं। आईटी, मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल और सर्विस सेक्टर में इनका योगदान महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, भारत-अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी केवल व्यापार तक सीमित नहीं है; इसमें रक्षा, कूटनीति और तकनीकी सहयोग भी शामिल हैं। लेकिन अगर ट्रंप की टैरिफ नीति एकतरफा और आक्रामक रूप से जारी रहती है, तो भारत के पास अपनी आर्थिक सॉफ्ट पावर का इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा।

वस्‍तुत: इतिहास गवाह है कि जब भी कोई देश भारत के आर्थिक हितों पर चोट करता है, तो भारत ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जवाब दिया है। आज की परिस्थिति में ‘मौन जवाब’ अमेरिकी कंपनियों को भारतीयों द्वारा स्‍वदेशी के माध्‍यम से दिया जाने लगे तो आप इसे कोई आश्‍चर्य नहीं मानना, क्‍योंकि भारत ऐसे प्रयोग पहले भी कई बार कर चुका है और सफल भी रहा है। फिलहाल इस बारे में यही कहना उचित होगा कि भारत के पास अपने बाजार और अमेरिकी कंपनियों पर नियंत्रण जैसे हथियार मौजूद हैं। यह हथियार शायद उतना दिखावटी न हो जितना ट्रंप का टैरिफ ऐलान, लेकिन यह तय है कि यदि सभी भारतीयों ने “स्‍वदेशी” को अपने जीवन में प्राथम‍िकता दे दी तो इसका असर कहीं अधिक गहरा, व्‍यापक और दीर्घकालिक होगा।

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