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विनम्र गुमनामी में कार्यरत, मृत्युंजय महावतार बाबाजी

डॉ मंजुलता गुप्ता

“…किसी भी शताब्दी में बाबाजी कभी जनसाधारण के सामने प्रकट नहीं हुए। सृष्टि में एकमात्र शक्ति होते हुए भी चुपचाप अपना काम करते रहने वाले स्रष्टा की तरह ही बाबाजी भी विनम्र गुमनामी में अपना कार्य करते रहते हैं।” संसार की सौ सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक पुस्तकों में से एक के रूप में चयनित ‘योगी कथामृत’ में वर्णित ये शब्द हमें इन महावतार के कार्यों के विषय में जानने के लिए उत्सुक बनाते हैं। परमहंस योगानन्द द्वारा रचित इस गौरव ग्रंथ में अमर महावतार बाबाजी के विषय में कुछ अध्याय सम्मिलित हैं, जिन्हें पढ़कर हमें हमारे इस प्रश्न का उत्तर बहुत सहजता से मिल जाता है।

क्रियायोग के लुप्त ज्ञान को जन जन तक पहुंचाने के लिए कुम्भ के मेले में स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी, योगानन्द के गुरु, से उन्होंने कहा, “कुछ वर्षों पश्चात मैं आपके पास एक शिष्य भेजूंगा जिसे आप पश्चिम में योग का ज्ञान प्रसारित करने के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं….”। वही शिष्य थे परमहंस योगानन्द, जिन्होंने पूर्व में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया तथा पश्चिम में सेल्फ रियलाइजेशन फ़ेलोशिप की स्थापना करके आध्यात्मिक विज्ञान की प्रविधि, क्रियायोग का प्रसार किया।

धार्मिक उदारतवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने हेतु अमेरिका जाने से पहले जब योगानन्द ने आशीर्वाद पाने हेतु ईश्वर से प्रार्थना की, तब बाबाजी ने उनके समक्ष प्रकट होकर उनके सम्पूर्ण संरक्षण का आश्वासन दिया था। यह दिन था 25 जुलाई का, जिसे संसारभर में भक्तगण स्मृति दिवस के रूप में हर साल मनाते हैं।

इस प्रकार, इस जगत में अवतरित विशेष कार्यों के लिए जो महापुरुष आते हैं, उनकी सहायता करना, जगत को आत्मोद्धारक स्पंदन भेजना बाबाजी का कार्य है। लाहिड़ी महाशय के अनुरोध पर उन्होंने संन्यासी जीवन जीने वालों के अलावा गृहस्थों को भी क्रियायोग विद्या सिखाने की अनुमति प्रदान कर हम सभी को अनुग्रहित किया है।

क्रियायोग विज्ञान के विषय में गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, “इस धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्यु के चक्र में निहित महान भय से तुम्हारी रक्षा करेगा।” इस विज्ञान को सीखने का मार्ग भी उपलब्ध है, और वह है पाठमाला का गृह – अध्ययन।

‘योगी कथामृत’ में वर्णित एक प्रेरक गाथा को सुनकर आत्मनिरीक्षण करने को मन होता है। कुम्भ मेले में लाहिड़ी महाशय ने बाबाजी को देखा कि वे एक जटाधारी संन्यासी के समक्ष नतमस्तक हैं। आश्चर्यचकित हो उन्होंने कहा, “ये आप क्या कर रहे हैं? इस पर बाबाजी ने कहा – मैं इस संन्यासी का पद प्रक्षालन कर रहा हूं, इसके बाद मैं इनके खाने के बर्तन मांजूंगा….” और फिर उन्होने कहा, “ज्ञानी अज्ञानी साधुओं की सेवा करके मैं उस सबसे बड़े सद्गुण को सीख रहा हूं, ईश्वर को अन्य सभी गुणों से सबसे अधिक प्रिय है-विनम्रता।” आइए, आज के युग में नितांत आवश्यक विनम्रता के इस महान गुण को अपने दैनिक जीवन में जीने का प्रयास करें, जिसका निरूपण इन कल्पनातीत महागुरु ने किया।

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