क्या असर दिखाएगी न्यायालय को नकारने की नालायकी…..?
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पिछले दो दिनों से देश का समूचा विपक्ष न्यायालय को नकारने की नालायकी पर उतरा हुआ है। सजा का एलान होने तक भी ठीक था,लेकिन जैसे ही राहूल गांधी की संसद की सदस्यता समाप्त होने की बात सामने आई,समूचा विपक्ष किसी पगलाए साण्ड की तरह व्यवहार करने लगा। न्यायालय के फैसले को सरकार की कार्यवाही बताया जाने लगा और सबसे चौंकाने वाली बात ये हुई कि कल तक एक दूसरे को कोसने वाली पार्टियां एक सुर में बोलती दिखाई दी। कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसने वाले अरविन्द केजरीवाल कांग्र्रेस की तरफदारी करते दिखाई दिए।
सूरत की अदालत ने जब कांग्रेस के अघोषित सुप्रीमो राहूल गांधी को मानहानि के लिए दोषसिद्ध करार दिया,कांग्रेस के तमाम नेता अपने युवराज को क्रान्तिकारी साबित करने पर तुल गए। कांग्रेस के कठपुतली अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने अपनी पहली ही प्रतिक्रिया में न्यायालय के दबाव में होने के इशारे कर दिए और प्रकारान्तर से यही संकेत दिया कि ये फैसला न्यायालय का नहीं बल्कि भाजपा की सरकार का है।
फिर कांग्रेस के तमाम नेता भी एक के बाद एक राहूल के प्रति अपनी वफादारी दिखाते हुए इस पूरे मामले का दोष भाजपा के मत्थे मंढने के लिए बढ चढ कर बोलते दिखाई देने लगे। पूरी की पूरी कांग्रेस राहूल को क्रान्तिकारी बताने पर तूल गई। पहले दिन शायद उन्हे लगा था कि विक्टिम कार्ड खेलने से कांग्रेस को फायदा मिल सकता है। लेकिन वे यह भूल गए कि राहूल गांधी को जो सजा सुनाई गई है,वह किसी जन आन्दोलन के लिए नहीं सुनाई गई है,बल्कि पिछडे वर्ग के एक समूह के प्रति मानहानि जनक वक्तव्य देने के लिए सुनाई गई है।
मामले का बडा मोड अगले दिन आया,जब लोकसभा सचिवालय द्वारा राहूल गांधी की संसद की सदस्यता समाप्त कर दी गई। जबकि जनप्रतिनिधित्व कानून के वर्तमान प्रावधानों के मुताबिक किसी सांसद या विधायक को दो वर्ष या इससे अधिक की दोषसिद्धि घोषित होने के साथ ही उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है। इस लिहाज से राहूल गांधी की संसद की सदस्यता उसी वक्त समाप्त हो गई थी,जब सूरत के न्यायालय ने उन्हे दोषसिद्ध करार दिया था।
लेकिन लोकसभा सचिवालय द्वारा राहूल गांधी की सदस्यता समाप्त करने की अधिसूचना सामने आते ही समूचे विपक्ष में जैसे भूचाल आ गया। अभी कल तक जो विपक्षी पार्टियां एक दूसरे को गालियों से नवाज रही थी,वो सभी पार्टियां आज राहूल के मामले में एक स्वर में बोलने लगी। जो ममता दीदी कांग्रेस को फूटी आंखों देखना नहीं चाहती थी,उस टीएमसी के प्रवक्ता राहूल गांधी का पक्ष लेते हुए भाजपा और नरेन्द्र मोदी को कोस रहे थे। कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसने वाले अरविन्द केजरावील और उनके आप वाले तमाम प्रवक्ता भी राहूल का पक्ष लेते हुए भाजपा सरकार और खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निशाने पर लेने लगे। अरविन्द केजरीवाल तो इतने गुस्से में आ गए कि अपनी प्रतिक्रिया में वे प्रधानमंत्री को अशिक्षित तक बताने लगे। कल तक कांग्रेस को महत्वहीन मानने वाले अखिलेश यादव भी राहूल का पक्ष लेकर नरेन्द्र मोदी को कोसने में जुट गए। खुद को हिन्दूवादी कहने वाले उद्धव ठाकरे को भी इतना गुस्सा आया कि वे अपरोक्ष रुप से प्रधानमंत्री को चोर बताने लगे। उन्होने प्रतिक्रिया दी कि चोर को चोर कहने पर सजा होने लगी है।
बहरहाल,तमाम विपक्षी नेताओं को एक सुर में बोलते देख राजनीति पर नजर रखने वालों को बडा मजा आ रहा है। विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया में एक बात कामन देखी गई कि लगभग सभी ने यह कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार डर गई है और डर के कारण इस तरह के कदम उठा रही है।
इससे बडा राजनीतिक चुटकुला दूसरा नहीं हो सकता कि लोकसभा में तीन सौ तीन सीटें जीत कर आने वाला नेता उनसे डर रहा है,जिनमें से कई के पास तो एक भी सीट नहीं है। भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को डरा हुआ बताना आजकल तमाम विपक्षी नेताओं की आदत में शामिल हो गया है। गुजरात विधानसभा चुनाव के वक्त से अरविन्द केजरीवाल और आप के तमाम नेता प्रधानमंत्री और भाजपा को डरा हुआ बता रहे थे। इसी तरह महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और संजय राउत भी ठीक यही भाषा बोल रहे थे। राहूल गांधी की सदस्यता समाप्त होने के बाद अब पूरा का पूरा विपक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा को डरा हुआ बता रहा है।
विपक्षी नेताओं को लगता है कि देश के आम नागरिक पूरी तरह मूर्ख है और वे विपक्षी नेताओं की बातों पर आंख मून्द कर भरोसा कर लेंगे। उन्हे लगता है कि मानहानि के प्रकरण में न्यायालय द्वारा दी गई सजा को भाजपा का षडयंत्र बताने को आम लोग सही मान लेंगे। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता प्रमोद तिवारी ने बाकायदा अपनी प्रतिक्रिया में यही कहा कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से जीत कर आ रही है इसलिए भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी डरे हुए है।
अपनी इसी गलतफहमी के चलते समूचा विपक्ष आम लोगों में लगातार अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। नरेन्द्र मोदी का शासन आने के पहले के राजनीतिक परिदृश्य को याद कीजिए। न्यायालय के फैसलों पर कभी सवाल खडे नहीं किए जाते थे और देश में एक नैतिक व्यवस्था बनी हुई थी कि न्यायालय के निर्णय को सभी लोग बिना किसी वाद विवाद के स्वीकार कर लेते थे। जिस नेता के खिलाफ न्यायालय का फैसला आता था,वह पूरी गरिमा के साथ न्यायालय के निर्णय को स्वीकार करते हुए उपर की अदालत में चुनौती देने की बात कहता था।
लेकिन ये शायद पहला मौका है,जब समूचा विपक्ष न्यायालय की निष्पक्षता पर सवालिया निशान ही नहीं लगा रहा है,बल्कि सीधे सीधे यह आरोप लगा रहा है कि राहूल की सदस्यता समाप्त करना एक षडयंत्र है और इसे न्यायालय भी शामिल है।
लेकिन विपक्षी नेता अपनी लगातार असफलताओं के चलते सामान्य समझ को भी छोड चुके है। वे यह समझ ही नहीं पा रहे है कि उनकी ये उटपटांग बयानबाजी आम लोगों में उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न नहीं करेगी,बल्कि उनके प्रति नाराजगी को और बढाएगी। वे इतनी सामान्य सी बात नहीं समझ पा रही है कि भारत की आम जनता में न्यायालयों के प्रति आज भी सबसे ज्यादा भरोसा है। अदालतों में करोडों प्रकरण लम्बित होने के बावजूद नागरिकों में न्याय मिलने का भरोसा है और उन्हे लगता है कि देश की न्यायपालिका ही एकमात्र ऐसी व्यवस्था है,जो पूरी तरह निष्पक्ष है और न्याय करती है। ऐसी स्थिति में न्यायालय को नकारने की नालायकी समूचे विपक्ष को भारी पडेगी और इसका भरपूर फायदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा को मिलेगा।
साभार : E khabar today