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विशेष त्वरित अदालतों से खत्म हो रही तारीख पर तारीख की संस्कृति

  • विशेष त्वरित अदालतों के कामकाज पर इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन की रिपोर्ट ‘फास्ट ट्रैकिंग जस्टिस : रोल ऑफ फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स इन रिड्यूसिंग केस बैकलॉग्स’ के अनुसार इन विशेष अदालतों में मामलों के निपटारे की दर 83 प्रतिशत रही जबकि अन्य अदालतों में सिर्फ 10 प्रतिशत
  • रिपोर्ट के अनुसार अगर सभी विशेष त्वरित अदालतों (एफटीएससी) को संचालित रखने के अलावा अगर 1000 नई विशेष अदालतों का गठन नहीं हुआ तो शायद कभी खत्म नहीं होंगे लंबित मामले
  • साल भर के भीतर सभी लंबित मामलों का खात्मा करना है तो हर तीन मिनट में करना होगा बलात्कार या पॉक्सो के एक मामले का निपटारा
  • सिर्फ दो प्रतिशत मामलों के निपटारे की दर के साथ पश्चिम बंगाल देश में सबसे नीचे, राज्य में 123 विशेष अदालतों की स्वीकृति के बावजूद महज तीन विशेष अदालतें ही कर रहीं काम

नई दिल्ली। अदालती मामलों में तारीख पर तारीख संस्कृति के लिए आलोचना का शिकार के बावजूद फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स यानी विशेष त्वरित अदालतें मामलों के निपटारे में तेज गति से काम कर रही हैं। इसके कारण न्याय की प्रतीक्षा कर रहे बलात्कार व यौन शोषण पीड़ितों के लिए एक नई उम्मीद बनकर उभरी हैं । इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन की हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार जहां पूरे देश की अदालतों में बलात्कार व पॉक्सो के मामलों के निपटारे की दर 2022 में सिर्फ 10 प्रतिशत थी, वहीं इन विशेष त्वरित अदालतों में यह दर 83 प्रतिशत रही, जो 2023 में बढ़कर 94 प्रतिशत तक पहुंच गई है।

रिपोर्ट ‘फास्ट ट्रैकिंग जस्टिस : रोल ऑफ फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स इन रिड्यूसिंग केस बैकलॉग्स’ ने यह भी चेताया है कि अगर अदालतों में एक भी नया मामला नहीं जोड़ा जाए और अगर हर तीन मिनट में बलात्कार या पॉक्सो के एक मामले का निपटारा किया जाए, तब कहीं जाकर दिसंबर 2023 तक के लंबित मामले साल भर में खत्म हो सकते हैं। रिपोर्ट ने लंबित मामलों के निपटारे के लिए देशभर में काम कर रही सभी विशेष त्वरित अदालतों को चालू रखने के अलावा एक हजार नई विशेष त्वरित अदालतों के गठन की सिफारिश की है। रिपोर्ट ने इस बात का भी संज्ञान लिया कि निर्भया फंड में पड़ी अप्रयुक्त राशि के उपयोग से दो साल में ये अतिरिक्त विशेष अदालतें गठित की जा सकती हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि इन अतिरिक्त त्वरित विशेष अदालतों का गठन नहीं होने की स्थिति में बलात्कार व पॉक्सो के लंबित मामलों का शायद कभी भी निपटारा नहीं हो पाएगा।

पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित करने में इन विशेष त्वरित अदालतों की आवश्यकता और इनकी केंद्रीय भूमिका को रेखांकित करते हुए प्रख्यात बाल अधिकार कार्यकर्ता और बाल विवाह मुक्त भारत के संस्थापक भुवन ऋभु ने कहा, “बलात्कार व यौन शोषण के मामलों में न्याय के लिए पीड़ितों की अंतहीन प्रतीक्षा के खात्मे की दिशा में भारत अब ‘टिपिंग प्वाइंट’ यानी वह बिंदु जहां एक छोटा सा बदलाव किसी बड़े परिवर्तन का वाहक बन जाता है, तक पहुंच रहा है। यह एक बेहद अहम क्षण है जब हमें अपने बच्चों व महिलाओं की सुरक्षा व संरक्षण में निवेश करना चाहिए और अगले तीन साल में सभी लंबित मामलों के निपटारे के लिए एक हजार विशेष त्वरित अदालतों के गठन से हम पीड़ितों के लिए न्याय का अधिकार सुनिश्चित कर सकते हैं। यह वो क्षण है जब पीड़ितों के लिए पुनर्वास और क्षतिपूर्ति सुनिश्चित करते हुए समाज में न्याय की प्रतिरोधक शक्ति को स्थापित करने के लिए लंबित मामलों व अपीलों के समयबद्ध निपटारे के बाबत एक नीति बनाई जाए ताकि न्याय वितरण प्रक्रिया में हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट सहित सभी अदालतों की जवाबदेही तय हो सके।”

रिपोर्ट के अनुसार अगर लंबित मामलों में एक भी नया मामला नहीं जोड़ा जाए तो भी विशेष त्वरित अदालतों में बलात्कार व पॉक्सो के 2,02,175 मामलों के निपटारे में अनुमानित तीन साल का समय लगेगा। इसके मद्देनजर तत्काल एक हजार नई विशेष त्वरित अदालतों के गठन के अलावा यह सुनिश्चित करने की सिफारिश की गई है कि मौजूदा सभी 1023 विशेष अदालतों में कामकाज सुचारू जारी रहे। रिपोर्ट में कहा गया है कि नई विशेष अदालतों के गठन के बगैर यदि मौजूदा अदालतों में नए मामले सुनवाई के लिए आते रहे तो लंबित मामलों के निपटारे में वर्षों लग सकते हैं। आज की तारीख में देश की 1,023 विशेष त्वरित अदालतों में सिर्फ 755 अदालतों में ही कामकाज हो रहा है। रिपोर्ट में साफ तौर पर यह तथ्य उजागर हुआ है कि विशेष त्वरित अदालतें लंबित मामलों के तेजी से निपटारे में कारगर साबित हुई हैं और इनके गठन के बाद से इनमें सुनवाई के लिए आए 4,16,638 मामलों में से 2,14,463 मामलों का निपटारा हो चुका है। महाराष्ट्र (80 प्रतिशत) और पंजाब (71 प्रतिशत) मामलों के निपटारे में शीर्ष पर हैं। जबकि महज दो प्रतिशत मामलों के निपटारे की दर के साथ देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में पश्चिम बंगाल सबसे निचले स्थान पर है। ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य में 123 विशेष त्वरित अदालतों के गठन की स्वीकृति है लेकिन महज तीन अदालतें ही काम कर रही हैं।

उल्लेखनीय है कि सरकार ने आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2018 में प्रस्तावित सख्त समय सीमा और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए बलात्कार व पॉक्सो मामलों के तेजी से निपटारे के लिए अगस्त 2019 में स्पेशल फास्ट ट्रैक कोर्ट्स यानी विशेष त्वरित अदालतों के गठन को मंजूरी दी थी। रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गई है कि मौजूदा विशेष अदालतों में कामकाज सुचारु रूप से जारी रखने और नई विशेष अदालतों के गठन के लिए निर्भया फंड की अप्रयुक्त राशि का उपयोग किया जा सकता है। रिपोर्ट कहती है कि निर्भया फंड में 1700 करोड़ रुपए की अप्रयुक्त राशि बची हुई है जबकि इन नई अदालतों के लिए 1,302 करोड़ रुपए की ही जरूरत है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि न्याय के लिए एक पीड़ित की लड़ाई इन विशेष अदालतों में आरोपी को सजा सुनाए जाने के साथ ही खत्म नहीं हो जाती बल्कि यह तब तक जारी रहती है जब तक की ऊपरी अदालतों में लंबित अपीलों का निपटारा न हो जाए। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि शीघ्रता से न्याय सुनिश्चित करने के लिए मुकदमों और अपीलों के निपटारे के लिए एक समय सीमा तय की जाए। इस बाबत हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में दायर अपीलों के निपटारे की समयसीमा तय करने के लिए एक नीतिगत रूपरेखा की आवश्यकता है।

रिपोर्ट ने बलात्कार व पॉक्सो के मामलों में पूरे देश में अभियुक्तों की दोषसिद्धि और उनके बरी होने के आंकड़े रखने और इसे नियमित रूप से अद्यतन करने की भी सिफारिश की है। इसमें कहा गया है कि सभी विशेष अदालतों के सूचना पट पर मुकदमे के निपटारे की स्थिति भी अंकित की जाए ताकि इनके आधार पर पीड़ित या राज्य अभियुक्त की रिहाई को चुनौती दे सकें और साथ ही हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों से संबंधित आंकड़े भी उपलब्ध हो सकें।

रिपोर्ट में प्रासंगिक जानकारी इकट्ठा करने के लिए कई माध्यमिक डेटा स्रोतों का उपयोग किया गया, जिसमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट, संसद में पूछे गए विभिन्न प्रश्नों और उनके उत्तर और पत्र सूचना कार्यालय से प्रकाशित दस्तावेज शामिल हैं। इसके अलावा मुकदमे के निपटारे में देरी का पीड़ित पर होने वाले असर को जानने के लिए बाल यौन शोषण के खिलाफ दुनिया की सबसे बड़ी कानूनी हस्तक्षेप पहलों में से एक ‘एक्सेस टू जस्टिस’ के दस्तावेजों व आंकड़ों का भी अध्ययन किया गया।

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