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अपनी दशा-दिशा के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार

डॉ. अनिल कुमार निगम

देश में सर्वाधिक अवधि तक शासन करने वाली कांग्रेस अपनी दशा और दिशा के लिए खुद ही जिम्मेदार है। आज यह पार्टी बेहद बदहाली के दौर से गुजर रही है। भाजपा के विराट कद के सामने विपक्ष बौना है। किसी मजबूत लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है पर कांग्रेस की नीतियां और कार्यशैली ही ऐसी है कि उसे देश की जनता अपने पास फटकने नहीं दे रही। कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा जर्जर हो चुका है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए लगभग चार महीने गुजर चुके हैं लेकिन अभी तक कोई प्रदेश अध्यक्ष नहीं मिला है। कांग्रेस की कर्ता-धर्ता सोनिया गांधी हैं, लेकिन उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। ऐसे में ‘असली अध्यक्ष’ की भूमिका राहुल गांधी निभाते हैं। राहुल को उनके अपरिपक्व एवं असंयमित व्यवहार के चलते पार्टी के अंदर और बाहर गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसलिए पार्टी वर्तमान में बेहद निष्क्रिय, असंवेदनशील या कहें कि स्लीपिंग मोड में जा चुकी है।

किसी समय केंद्र के अलावा विभिन्न राज्यों में कांग्रेस अथवा उसके सहयोग से बनाई हुए सरकारें ही सत्ता में होती थीं। आज स्थिति यह हो गई है लोकसभा में कांग्रेस की 53 और राज्यसभा में महज 31 सीटें ही बची हैं। वास्तविकता तो यह है कि कांग्रेस लोकसभा में भाजपा के बाद सबसे बड़ा दल तो है पर उसे विपक्ष का दर्जा भी नहीं मिल सका है। 28 राज्यों में से राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही वह सत्तारूढ़ है। इसके साथ बड़ा सच यह है कि राजस्थान में पार्टी गुटबाजी का शिकार है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच गुटबाजी एवं खींचतान सबके सामने है।

इसी वर्ष मार्च में पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है। इन राज्यों केअध्यक्षों से इस्तीफा लिया जा चुका है। उत्तर प्रदेश में अभी तक नया अध्यक्ष नहीं खोजा सका है। मगर परदे की पीछे का रहस्य यह है कि कोई भी कद्दावर नेता यह जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। उन्हें यह बखूबी मालूम है कि कांग्रेस का जनाधार बेहद कमजोर है और पार्टी की निष्क्रियता के चलते उसमें कोई फेरबदल होने की भी कोई संभावना नहीं है। बल्कि चुनाव में हार का ठीकरा उसी के सिर फोड़ा जाएगा।

यह सर्वविदित है कि राहुल जिस तरीके से पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ व्यवहार करते हैं, उसके चलते पार्टी के अंदर असंतोष व्याप्त रहता है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के साथ उनका व्यवहार आज भी बड़ी राजनीतिक गलती के रूप में दर्ज है। संसद के अंदर और यहां तक कि सोशल मीडिया में भी उनका व्यवहार एक सधे और परिपक्व राजनीतिज्ञ की तरह नहीं होता है। हर हार के बाद वह एक खीझे हुए व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हैं। यही वजह है कि पार्टी के अंदर और बाहर उनका माखौल उड़ाने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। लगभग हर राज्य में कांग्रेस के अंदर दो से तीन गुट बन चुके हैं। दो गुट तो प्राय: स्पष्ट हैं। एक गुट बुजुर्गवार नेताओं का है और दूसरा नई पीढ़ी के नेताओं का।

बुजुर्गवार पार्टी के अंदर किसी भी कीमत पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहते। ज्यादातर ऐसे नेताओं की निष्ठा सोनिया गांधी के साथ है। युवा नेताओं का जुड़ाव राहुल और प्रियंका के साथ है। अधिसंख्य पुराने नेता पार्टी को नेहरू-गांधी परिवार से बाहर नहीं निकलने देना चाहते। राहुल गांधी के व्यवहार और गुटबाजी का ही नतीजा है कि राहुल ब्रिग्रेड के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितेन प्रसाद, आरपीएन सिंह जैसे नेता भाजपा का दामन थाम चुके हैं और कई और नेताओं का पार्टी के अंदर दम घुट रहा है।

आज कांग्रेस लगातार दलदल में धंसती जा रही है। उसने कभी अपनी नीतियों और पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में आमूलचूल बदलाव के बारे में आत्ममंथन करने की जरूरत नहीं समझी। वह परिवारवाद और वंशवाद के दंश से घिरी हुई है। चाटुकारों की टोली पार्टी को गांधी नेहरू-परिवार से बाहर निकलने भी नहीं देना चाहती। किसी देश के सशक्त लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि वहां पर एक मजबूत विपक्ष अवश्य हो। आज वह समय आ गया है कि कांग्रेस अपने निहितार्थों का त्यागकर आत्ममंथन एवं चिंतन करते हुए अपने सांगठनिक ढांचे और नीतियों में परिवर्तन करे और यह परिवर्तन समय रहते ही करना होगा अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि उसका नाम सिर्फ इतिहास में ही पढ़ा जाए।

(लेखक,स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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