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लोकसभा चुनाव में दांव पर है प्रमुख क्षेत्रीय दलों के नेताओं की सियासत

नई दिल्ली। लोकसभा के चुनावी मुकाबले में बेशक सबकी निगाहें सबसे ज्यादा सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी गठबंधन की अगुआई कर रही कांग्रेस की ओर लगी हैं, मगर इसमें कई बड़े क्षेत्रीय क्षत्रपों की भविष्य की राजनीति 2024 के चुनाव में दांव पर रहेगी।

उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम भारत के कम से कम आधा दर्जन से अधिक बड़े क्षत्रपों की राजनीति खास तौर पर कसौटी पर होगी। इसमें अखिलेश-तेजस्वी, जगनमोहन-चंद्रबाबू-चंद्रशेखर राव से लेकर ममता-शरद पवार-उद्धव ठाकरे जैसे प्रमुख क्षत्रपों की आगे की राजनीति की दशा-दिशा काफी हद तक इस चुनाव के नतीजे तय करेंगे।

इसमें संदेह नहीं कि दक्षिण के राज्यों में क्षेत्रीय दलों का आधार अब भी काफी मजबूत है, मगर बीते 10 साल में केंद्र में भाजपा शासन के दौरान तेजी से बदल रहे राजनीतिक वातावरण ने क्षत्रपों की भी चुनौती बढ़ाई है।

बंगाल में ममता बनर्जी की बढ़ी चुनौती इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। 2019 में लोकसभा की 18 सीटें जीतने के बाद 2021 के विधानसभा चुनाव में 75 सीटें हासिल कर भाजपा ने राज्य में मुख्य विपक्ष की जगह ले ली है।

इसके बाद से ममता भाजपा के सियासी निशाने पर हैं और संदेशखाली की ताजा घटना पर दोनों के टकराव से साफ है कि 2024 के चुनाव में दोनों पार्टियां आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं। 2026 के चुनाव में बंगाल की सत्ता की बागडोर पर गहराते खतरों को थामने के लिए यह चुनाव ममता के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है।

झारखंड में ईडी की गिरफ्तारी के बाद पूर्व सीएम हेमंत सोरेन जेल में हैं और उनकी कानूनी ही नहीं सियासी चुनौती भी कई गुना बढ़ गई है। लोकसभा चुनाव से पहले उनके बाहर आने की संभावनाएं कम ही लग रही हैं।

तेजस्वी यादव ने निर्विवाद रूप से बिहार में राजद के नेता के तौर पर लालू प्रसाद का उत्तराधिकार अपने हाथ में ले लिया है मगर राज्य के सामाजिक समीकरण से प्रभावित होते रहे चुनाव नतीजे उनके लिए चिंता का सबब बने हैं। 2024 का चुनाव उनके लिए बड़ी कसौटी इसलिए भी है कि 2019 में राजद को लोकसभा में एक भी सीट नहीं मिली थी।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुकाबले सपा विपक्ष की धुरी है मगर अखिलेश यादव के लिए चुनौती यह है कि पिछले दो लोकसभा चुनाव में सपा सूबे में कोई कमाल नहीं कर सकी। 2012 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश ने सपा के नेतृत्व की बागडोर भी अपने हाथों में ली और 2014 और 2019 में नेतृत्व उनका ही था पर सपा दोनों चुनाव में पांच सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाई।

2024 अखिलेश के लिए बड़ी कसौटी इस लिहाज से भी है कि 2017 और 2022 दो विधानसभा चुनाव में भी उन्हें शिकस्त का सामना करना पड़ा। राष्ट्रीय राजनीति के बदले परिवेश में वैचारिक धारा की लड़ाई भाजपा बनाम कांग्रेस है। ऐसे में क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए सत्ता से बाहर रहकर अपनी सियासत बचाए रखना आसान नहीं रहा।

महाराष्ट्र के दो बड़े क्षत्रपों एनसीपी पवार गुट के प्रमुख शरद पवार और शिवसेना यूबीटी के प्रमुख उद्धव ठाकरे की पार्टियों को ध्वस्त कर भाजपा ने सूबे के सियासी समीकरण को डांवाडोल कर दिया है। 81 वर्षीय शरद पवार अपनी पार्टी के साथ खुद का अस्तित्व बचाने की लड़ाई इस चुनाव में लड़ रहे हैं क्योंकि उनके बागी भतीजे अजीत पवार न केवल भाजपा के साथ जाकर डिप्टी सीएम बन गए बल्कि उनकी पार्टी पर भी कब्जा कर चुके हैं।

शरद पवार जैसा हाल उद्धव ठाकरे का है जिनके वरिष्ठ नेता रहे एकनाथ शिंदे को भाजपा ने मुख्यमंत्री बना दिया और उन्होंने तीर-धनुष समेत शिवसेना कब्जे में कर ली। ऐसे में महराष्ट्र की राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए पवार और उद्धव दोनों के सामने यह चुनाव बहुत बड़ी चुनौती लेकर आया है और दोनों का सियासी अस्तित्व दांव पर है।

तमिलनाडु में जयललिता के देहांत के बाद से ही अन्नाद्रमुक अंदरूनी कलह से डांवाडोल है और इस चुनाव में भी पार्टी का हाल पिछले चुनाव की तरह हुआ तो फिर इसके नेता पूर्व सीएम पनीरसेल्वम की भविष्य की सियासत दांव पर होगी।

तेलंगाना में चार महीने पहले तक सत्ता के शहंशाह रहे बीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव को कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में चित कर दिया। अब लोकसभा चुनाव से पहले उनकी पार्टी बिखरती दिख रही और विपक्ष की जगह लेने के लिए भाजपा आक्रामक रणनीति अपना रही है। आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू दोनों के लिए यह चुनाव दोहरी कसौटी है क्योंकि वहां विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।

साभार : दैनिक जागरण

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